पाकिस्तान के लाहौर शहर में प्रदूषण और धुंध से निजात पाने के लिए आर्टिफिशिल रेन (Artificial Rain) यानी क्लाउड सीडिंग (Cloud Seeding) टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया गया है. लाहौर पाकिस्तान का सबसे प्रदूषित शहर है और दुनियाभर की सबसे पॉल्यूटेड सिटी की लिस्ट में भी शुमार है. पंजाब प्रांत के केयरटेकर मुख्यमंत्री मोहसिन नकवी ने बताया कि आर्टिफिशियल रेन संयुक्त अरब अमीरात की तरफ से पाकिस्तान के लिए तोहफा है. पाकिस्तान इस वक्त आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहा है और पहले ही कर्ज में डूबा है. ऐसे में आर्टिफिशियल रेन जैसी टेक्नोलॉजी का खर्च उठा पाना उसके लिए बेहद मुश्किल हैं.


नकवी ने बताया कि 10-12 दिन पहले यूएई से दो प्लेन पाकिस्तान पहुंचे थे, जिनसे 48 फ्लेयर तैनात किए गए थे. इससे लाहौर के 10 इलाकों में 15 किलोमीटर के दायरे में हल्की बारिश देखी गई. यूएई, चीन और रूस जैसे इस देश इस टेक्नोलॉजी का समय-समय पर इस्तेमाल करते रहें हैं, लेकिन यह पहली बार है जब प्रदूषण रोकने के लिए दक्षिण एशिया में आर्टिफिशियल रेन का इस्तेमाल किया गया है. इसके बाद से यह एक बार फिर से चर्चा में है. आइए जानते हैं आर्टिफिशयल रेन होती क्या है-


क्या होती है आर्टिफिशिल रेन?
आर्टिफिशियल रेन मौसम में बदलाव लाने की एक टेक्नोलॉजी है, जिसके तहत सिल्वर आयोडाइड और पॉटेशियम आयोडाइड या ड्राई आइस जैसे पदार्थों का आसमान में छिड़काव किया जाता है. इससे बारिश और बर्फबारी के लिए माहौल तैयार होता है. ये पदार्थ चारों ओर पानी की बूंदों के निर्माण के लिए न्यूक्लाई का काम करते हैं, जिससे बड़ी वॉटर डॉप्लेट बनती हैं और फिर आसमान में बारिश या बर्फबारी के लिए माहौल तैयार हो जाता है.


कैसे होती है आर्टिफिशियल रेन?
क्लाउड सीड़िंग टेक्नोलॉजी के तहत एयरक्राफ्ट हजारों फीट ऊंचाई पर बादलों के बीच जाता है और वहां पर सिल्वर आयोडाइड और पॉटेशियम आयोडाइड या ड्राई आइस के मिक्सचर का छिड़काव करता है. जब छिड़काव होता है तो मिक्सचर के पार्टिकल आसमान में जाते हैं और फिर पार्टिकल्स के आस-पास वाष्पीकरण यानी कंडेनसेशन होता है. वाष्पीकरण के बाद पानी की बूंदें बन जाती हैं और फिर यही बूंदे बारिश में बदल हो जाती हैं. इस तरह आर्टिफिशियल रेन बन होती है.  हालांकि, क्लाउड सीडिंग की सफलता मौसम के मिजाज पर निर्भर करती है. आर्टिफशियल रेन के लिए बादल होने जरूरी हैं और उसमें मॉइश्चर यानी पानी होना चाहिए. तभी टेक्नलॉजी काम करती है. अगर ऐसा नहीं है तो यह काम नहीं करेगी क्योंकि ये टेक्नोलॉजी सिर्फ इतना कर रही है कि बादलों में जो पानी मौजूद है उसको तेजी से बरसात में बदलने का काम यह कर रही है.


क्या भारत में भी किया गया आर्टिफशियल रेन का इस्तेमाल?
अक्टूबर-नवंबर महीने में भी जब दिल्ली-एनसीआर में स्मॉग बढ़ गया और वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) गंभीर श्रेणी में पहुंच गया तो दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने क्लाउड सीडिंग कराए जाने की बात कही थी. हालांकि, उस वक्त 2-3 दिन खुद ही जमकर बारिश हो गई, जिसकी वजह से प्रदूषण से काफी हद तक लोगों को राहत मिली. भारत के सूखे इलाकों मे बारिश कराने के लिए इस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन प्रदूषण रोकने के लिए ऐसा नहीं किया गया है. कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के कुछ इलाकों में मानसून के सीजन में इस प्रक्रिया से बारिश कराई गई है. साल 2018 और 2019 में महाराष्ट्र के सोलापुर में क्लाउड आर्सेनल इंटरेक्शन एंड प्रीसीपीटेशन एनहेंसमेंट एक्सपेरीमेंट (CAIPEEX-IV) किया गया था, जिससे बारिश में 18 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई थी. साल 2018 और इस साल भी प्रदूषण को रोकने के लिए दिल्ली में आर्टिफिशियल बारिश कराए जाने की चर्चा हुई थी, लेकिन बाद में प्लान कैंसिल कर दिया गया.


आर्टिफिशियल रेन में आता है कितना खर्च
आर्टिफिशियल रेन कराने के लिए 1 लाख प्रति वर्ग किलोमीटर तक का खर्च आता है. नवंबर महीने में जब प्रदूषण रोकने के लिए इस टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की बात की जा रही थी, तब आईआईटी-कानपुर के प्रोफेसर मनानेद्र अग्रवाल ने बताया कि एक स्कवायर किलोमीटर में आर्टिफिशियल बारिश कराने का खर्च एक लाख तक है, जिसके लिए दिल्ली सरकार तैयार है. उन्होंने बताया था कि अगर दो फेज में टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया गया तो इसका कुल खर्च 13 करोड़ रुपये तक आएगा.


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