राहुल का वादा: जीते तो 'न्यूनतम आय गारंटी' देंगे, जानें- किन देशों के बेरोज़गारों को मिलता है सबसे अधिक फायदा
अपने ताज़ा चुनावी वादे में राहुल गरीबी और भूख़ मिटाने की बात कर रहे हैं. इसके पहले किसानों की कर्ज़माफी का वादा करके कांग्रेस ने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे बीजेपी के किलों को ढहा दिया, वहीं राजस्थान जैसे गढ़ को भी फतह कर लिया. हालांकि, राहुल के इस दावे को लेकर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं.
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कल एक नए भारत और मिनिमम इनकम गारंटी की बात की है. उन्होंने अपने एक ट्वीट में लिखा कि जब तक हमारे लाख़ों भाई-बहन गरीबी की मार झेल रहे हैं तब तक हम एक नए भारत का निर्मण नहीं कर सकते हैं. कांग्रेस अध्यक्ष ने आगे कहा कि अगर 2019 में उनकी पार्टी जीतती है तो कांग्रेस हर गरीब को मिनिमम इनकम की गारंटी देगी यानी जो गरीब हैं उन्हें न्यूनतम आय की गारंटी दी जाएगी.
अपने ताज़ा चुनावी वादे में राहुल गरीबी और भूख़ मिटाने की बात कर रहे हैं. इसके पहले किसानों की कर्ज़माफी का वादा करके कांग्रेस ने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे बीजेपी के किलों को ढहा दिया, वहीं राजस्थान जैसे गढ़ को भी फतह कर लिया. हालांकि, राहुल के इस दावे को लेकर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं. एक अनुमान के मुताबिक अगर कांग्रेस इस वादे को पूरा करने की नीयत रखती है तो उसे भारत सरकार के कुल बजट का 10% ख़र्च करना पड़ेगा.
We cannot build a new India while millions of our brothers & sisters suffer the scourge of poverty.
If voted to power in 2019, the Congress is committed to a Minimum Income Guarantee for every poor person, to help eradicate poverty & hunger. This is our vision & our promise. — Rahul Gandhi (@RahulGandhi) January 28, 2019
ऐसे में सवाल उठाए जा रहे हैं कि सुनने में तो मिनिमम इनकम की गारंटी यानी न्यूनतम आय की गारंटी बड़ी अच्छी लगती है. लेकिन ज़मीनी सच्चाई के लिहाज़ से ये कितनी व्यवहारिक होगी. ऐसे में आइए ऐसे देशों के बारे में जान लेते हैं जो बेरोज़गारों के लिहाज़ से बेहतर हैं.
फ्रांस बेरोज़गारों के लिहाज़ से फ्रांस यूरोप के सबसे अच्छे देशों में है. 2015 के एक रिपोर्ट के मुताबिक फ्रांस के बेरोज़गारों को 6,959 यूरो यानी 5,65,782 रुपए हर महीन बेरोज़गारी भत्ते के तौर पर दिया जाता है. हालांकि, इससे जुड़ी एक अधिकारी ने कहा था कि ये रकम सबसे बड़ी है और मुश्किल से देश के 1000 बेरोज़गारों को दी जाती है. वहीं, इस पर दावा करने वालों की संख्या 2.6 मिलियन यानी 26 लाख़ लोगों के करीब है.
जिन कर्मचारी की उम्र 50 के नीचे हैं वो अपनी कंपनी से दो साल और 50 से ऊपर वाले तीन सालों तक के बेरोज़गारी भत्ते की मांग कर सकते हैं. आम तौर पर एक कर्मचारी को उसकी सैलरी का 65% तक भत्ते के तौर पर दिया जाता है. फ्रांस में औसत आमदनी 2000 यूरो यानी 1,62,565 रुपए के करीब है. भत्ता हासिल करने के लिए पहले Pôle Emploi जॉब सेंटर के साथ ख़ुद को रजिस्टर करना पड़ता है और सक्रिया रूप से काम की तलाश करनी पड़ती है.
इसके बाद अगर लंबे समय तक काम नहीं मिलात तो बेरोज़गारी भत्ता दिया जाता है. अगर बेरोज़गार व्यक्ति का कोई बच्चा नहीं है तो उसे 514 यूरो यानी 48,047 रुपए और बच्चे वाले जोड़े को 87,724 रुपए दिए जाते हैं.
जर्मनी जर्मनी के सोशल इंश्योरेंस सिस्टम के तहत कर्मचारी की आमदनी का तीन प्रतिशत हिस्सा बेरोज़गारी प्रिमियम के तौर पर काट लिया जाता है. इसका आधा हिस्सा कंपनी भरती है. दो सालों में अगर कोई भी कर्मचारी इस हिस्से को 12 महीनों तक के लिए भरता है तो उसे इस स्कीम का फायदा मिलात है. जिनके बच्चे हैं वो अपनी सैलरी के तीन तिहाई का दावा कर सकते हैं, वहीं जो बिना बच्चों वाले हैं वो 60% तक का दावा कर सकते हैं.
अलग-अलग उम्र के लोग अलग-अलग समय के लिए इसका फायदा उठा सकते हैं. कोई सबसे बड़ी सीमा यानी अगर डेढ़ साल से अधिक समय के बाद भी इसका फायदा उठाने को मजबूर है तो उसे उन्हें एक फ्लैट रेट वाला बेरोज़गारी भत्ता दिया जाता है. भत्ता के हर साल जनवरी में अपडेट किया जाता है. इसे मौजूदा महंगाई के लिहाज़ से अपडेट किया जाता है. हालांकि, इस रकम में उस स्थिति में कटौती की जाने लगती है जब इसे पाने वाला उसे उसके हिसाब से दिया गया काम करने या काम खोजने को लेकर अनिच्छुक हो.
इटली द गार्डियन की 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक तब 12.9 प्रतिशत बेरोज़गारी दर वाले इस देश में बेरोज़गारों से जुड़े फायदे बेहद अहम मुद्दा है. इस देश में अगर किसी बेरोज़गार को बेरोज़गारी से जुड़े फायदे चाहिए तो उसे काम से निकाले जाने के दो साल पहले नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सोशल सिक्योरिटी के साथ इंश्योर्ड होना पड़ेगा और कम से कम 52 हफ्तों तक इसमें अपना योगदान देना पड़ेगा. अपनी मर्ज़ी से काम छोड़ने वालों को इसका फायदा नहीं मिलता.
आयरलैंड इस देश में अगर कोई व्यक्ति 66 साल से कम उम्र का है और उसके पास हफ्ते में तीन दिनों तक काम नहीं है तो उसे काम की तलाश कर रहे व्यक्ति के फायदे मिलते हैं. इसके लिए सोशल प्रोटेक्शन डिपार्टमेंट को ये दिखाना होता है कि फायदा की कोशिश में लगा व्यक्ति काम के लिए फिट है और सोशल इंश्योरेंस में पर्याप्त योगदान दिया है. इस देश में कर्मचारी को काम पर वापस लाए जाने को लेकर बेहद सख्ती है. वहीं, अगर सामने वाले ने अपनी मर्जी या ख़राब व्यवहार की वजह से नौकरी खोई है तो उल्टे उसके ऊपर पेनाल्टी लगा दी जाती है.
जापान इस देश में मुख्य रूप से दिव्यांगों को सामाजिक सुरक्षा दी जाती है. जापान के सरकारी आंकड़े के मुताबिक 2015 तक 7.4 मिलियन यानी 74 लाख़ लोग इस श्रेणी के तहत आते हैं. किस दिव्यांग की कैसी समस्या है और उसकी कितनी आय है इसके आधार पर ये तय किया जाता है कि उसे कितनी रकम सहायता में दी जानी है. वहीं, ऐसे लोग जिन्होंने सोशल स्कीम में अपना योगदान दिया है और रिटायर होने के बाद दिव्यांग हो गए हैं तो ऐसी स्थिति में उन्हें पैसे दिए जाते हैं.
रूस रूस में सामाजिक सुरक्षा बेहद कमज़ोर है. यहां किसी को 12 महीने से अधिक की सामाजिक सुरक्षा नहीं दी जाती है. वहीं ये रकम भी बेहद कम होती है. मिलने वाले पैसे इस बात पर निर्भर करते हैं कि व्यक्ति ने कितने दिनों तक काम किया है और किस वजह से नौकरी छोड़ी है. जितनी रकम दी जाती है उससे मूल खर्च भी नहीं पूरा होता है. ये रकम बस इतनी होती है जिसके सहारे खाने और बेसिक दवा का ख़र्च निकल जाए.
अमेरिका मार्च 2015 तक अमेरिका की बेरोज़गारी दर 5.4 फीसदी थी. सबसे विकसित अर्थव्यवस्था होने के बावजूद अमेरिका को बेरोज़गारों के लिहाज़ से बेहद बेकार माना जाता है. हाल ये है कि चार बेरोज़गारों में से कोई एक ही बेरोज़गार होने की कैटेगरी के तहत मिलने वाले फायदे के लिए सारी ज़रूरते पूरी कर पाता है. इसके लिए व्यक्ति को ये साबित करना पड़ता है कि उसकी नौकरी उसकी गलती से नहीं गई है और उसने एक तय सीमा तक काम किया है. अमेरिकी में 14 हफ्तों से लेकर ज़्यादा से ज़्यादा 26 हफ्तों तक सामाजिक सुरक्षा दी जाती है. इसके तहत दी जाने वाली रकम बेहद कम होती है.
न्यूनतम आय गारंटी क्या होती है? इंटरनेशनल मॉनिटरिंग फण्ड इसे एक ऐसी तय रकम के तौर पर परिभाषित करता है जो देश के हर नागरिक के खाते में सरकार द्वारा भेजी जाती है. ये सरकार द्वारा दिए जाने वाले टैक्स रिफंड और वेलफेयर स्कीम के पैसों से अलग होती है. क्योंकि बाकी मामलों में मिलने वाली रकम अलग-अलग होती है जबकि न्यूनतम आय गारंटी के तहत मिलने वाली रकम समान होती है. जिन्हें पैसे मिले हैं वो जैसे चाहे इसे ख़र्च कर सकते हैं और उन्हें सरकार को इसका हिसाब नहीं देना पड़ता है.
इसे किनका समर्थन हासिल है? अमेरिका के सिल्कॉन वैली में कई बड़ी कंपनिया हैं जिनमें टेस्ला और फेसबुक भी शामिल हैं. टेस्ला के मालिक एलॉन मस्क से लेकर फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग तक इसका समर्थन करते हैं. उनका मानना है कि ऐसा समर्थन उन लोगों को मिलान चाहिए जो रोबोट जैसी तकनीक की वजह से अपनी नौकरियां खो सकते हैं. भारत में राहुल गांधी ने इसे चुनावी वादे के रूप में पेश किया है. लेकिन देखने वाली बात होगी कि भारत में ये कैसे आकार लेते हैं क्योंकि एक देश के तौर पर यहां मुफ्त में बांटने जितने पैसे तो नहीं हैं.
ये कोई नया ख़्याल नहीं है. ये आइडिया सालों पुराना है. इतना पुराना कि 1797 में लेखक थॉमस पेन ने "किसानों के लिए न्याय" में ये सुझाव दिया था कि गरीब से अमीर तक को सरकार द्वारा एक तय आर्थिक सहायता मुहैया कराई जाए. फ्री मार्केट के चैंपियन मिल्टन फ्रेडमैन भी ऐसा ही उपाए सुझाया था जिसे उन्होंने निगेटिव इनकम टैक्स का नाम दिया था. आज इसे लगभग हर देश की किसी न किसी राजनीतिक पार्टी का समर्थन प्राप्त है.
क्या कभी ऐसा हो पाया है? ऑर्गेनाइज़ेशन फॉर इकनॉमिक डेवलपमेंट के मुताबिक किसी देश ने न्यूनतम आय गारंटी को काम करने वाली आबादी के लिए आय के प्राथमिक श्रोत के रूप में स्थापित नहीं किया है. लेकिन कई देश एक छोटी आबादी के साथ इस पर प्रयोग कर रहे हैं. फिनलैंड ने 2000 बेरोज़गार लोगों के साथ 2017 में ये प्रयोग शुरू किया था जिसके तहत उन्हें कुछ सालों तक एक तय रकम दी जानी है. बाद में इस पर आधारित रिसर्च से तय होगा कि इसका भविष्य कैसा होगा. ऐसे प्रयोग नीदरलैंड, केन्या, कनाडा से अमेरिका तक किए जा रहे हैं.
भारत में कैसी होगी रूपरेखा? ऐसा माना जा रहा है कि देश के 97 करोड़ लोग इस स्कीम के लाभांवितों में शामिल होंगे. ये 20 करोड़ परिवार के करीब बैठेगा. ऐसे में अगर एक परिवार को हर महीने 1000 रुपया दिया जाता है तो इस योजना का ख़र्च 2,40,000 करोड़ रुपये हर साल होगा जोकि भारत सरकार के इस साल के ख़र्च के 10 फीसदी के करीब हैठता है और 167 लाख करोड़ की जीडीपी में ये आंकड़ा 1.5 फीसदी का होगा.
ज़ाहिर से बात है कि भारत में गरीबी और भुखमरी जैसी समस्या को देखने के बाद ये योजना सुनने और कागज़ पर देखने में तो अच्छी लगती है. लेकिन मनरेगा जैसी स्कीम चला चुकी कांग्रेस पार्टी के पास इसे लेकर क्या प्लान और कितनी ईमानदारी है ये बहस का विषय है.
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