राज की बात: अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बाद अब क्या करेगा भारत?
Raj Ki Baat: अफगानिस्तान में तालिबान की पकड़ लगातार मजबूत होती दिख रही है. अमेरिकी सेनाओं की वापसी के बीच भारत का अगला कदम क्या होगा? देश में राजनयिक स्तर पर मंथन और गतिविधयां चल रही हैं.
अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी ने पूरे क्षेत्र में विकट और विचित्र हालात पैदा कर दिए हैं. भारत भी इससे अछूता नहीं है. तालिबान लगातार पकड़ मजबूत करते दिख रहे हैं. काबुल सहायता के लिए अमेरिका के साथ-साथ भारत की तरफ भी देख रहा है. तालिबान की सोच और नीति से भारत बिल्कुल इत्तेफाक नहीं रखता. काबुल से हिंदुस्तान के संबंध भी अच्छे हैं. भारत का निवेश भी अफगानिस्तान में खूब है. तो सवाल है कि आखिर अब भारत क्या करेगा? राज की बात ये है कि यहां पर भारत –तटस्थ- वाली नीति पर चलेगा...इसके पीछे क्या है राज...उस पर करते हैं आगे बात..
भारत की संसद में हो हल्ला के बीच अफगानिस्तान को लेकर भी देश में राजनयिक स्तर पर मंथन और गतिविधयां चल रही हैं. अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अब्दुल्ला अब्दुल्ला भारत के दौरे पर थे. 27 जुलाई को अफगानिस्तान के सेना प्रमुख अहमद जई भी दिल्ली में होंगे. उसी समय अमेरिकी विदेश मंत्री टोनी ब्लिंकन भी भारत की धरती पर रहेंगे. जाहिर है कि अफगानिस्तान से जो अमेरिकी सेनाओं की वापसी हो रही है, उसके बाद का यह घटनाक्रम है. मौजूदा हालात में अफगानिस्तान की स्थिति को लेकर भारत महत्वपूर्ण केंद्र के तौर पर अंतरराष्ट्रीय जगत में देखा जा रहा है.
अमेरिका पहले ही कह चुका है कि अब क्षेत्रीय ताकतों को अफगानिस्तान के हालात संभालने के लिए आगे आना होगा. अफगानिस्तान के सेनाध्यक्ष व विदेश मंत्री का दौरा भी तालिबान को रोकने के लिए भारत की मदद का है. अमेरिका भी भारत की सक्रिय भूमिका चाहता है. कारण ये भी है कि भारत ने अफगानिस्तान में खासा निवेश किया है और संसाधन झोंके हैं. सड़कें, बिजली और संसद समेत तमाम संस्थान भारत ने बनाने में मदद की है. ऐसे में भारत का यहां पर खासा दखल भी माना जा रहा है.
इसके बावजूद राज की बात ये है कि भारत न तो अपनी सेनाएं काबुल भेजेगा और न ही हथियारों से मदद करेगा. कारण है कि अमेरिकी प्रशिक्षित लड़ाके अफगानी सेना में हैं. हथियार और गोलाबारुद भी अमेरिका ने दिया ही है. भारत विदेशी धरती पर शांति स्थापना में नैतिक समर्थन का तो हामी है, लेकिन परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से शामिल होने का पक्षधर नहीं.
राज की बात है कि अमेरिकी विदेश मंत्री जब भारत के दखल की बात करेंगे तो उल्टे हम उनसे कैफियत तलब करेंगे. भारतीय कूटनिति इस मामले में साफ है कि अमेरिका के सामने ये सवाल उठाया जाएगा कि आपके कहने से अफगानिस्तान में भारत ने निवेश किया. अब आप लोग ही निकले जा रहे हैं. अफगानिस्तान में भारत क्यों सीधे सामरिक मदद नहीं करेगा, इसकी एक नहीं तीन वजहें हैं. इसका इतिहास भी है, भूगोल भी और अंत में अर्थशास्त्र भी.
इतिहास ये है कि शांति सेना हो या कोई और मिशन हम सफल नहीं हुए. वैसे भी मिलिट्री आपरेशन में अगर अपनी इंटेलीजेंस न हो तो फुट आन ग्राउंड होना घातक होता है. हथियारों की आपूर्ति में भी भारत नहीं पड़ेगा. भूगोल इस लिहाज से खिलाफ है कि हमें अफगानिस्तान जाने के लिए पाकिस्तानी आसमान की जरूरत पड़ेगी. उन्होंने इजाजत नहीं दी तो ईरान के रास्ते जाना होगा.
भारत के एक उच्च राजनायिक ने साफ कहा कि इस इलाके में हमारी सेना या लोगों को सीधे फंसाना किसी लिहाज से उचित नहीं क्योंकि यहां हमारे दुश्मन ज्यादा दोस्त कम हैं. अगर उजबेकिस्तान या तुर्केमिस्तान हमारी मदद करें तो भी इस इलाके में रूस,चीन और पाकिस्तान के अपने हित हैं. इसलिए तमाम साम्राज्यों का कब्रिस्तान बन चुके काबुल में अपने लोगो को नहीं फंसाएंगे.
राज की बात है कि भारत ये देखेगा कि काबुल का किला कब तक मजबूत है. नैतिक रूप से और राजनयिक रूप से उन्हें समर्थन करने के बावजूद भावावेश में भारतीय हितों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया जाएगा. उधर, तालिबान को भारत ने मान्यता नहीं दी है, लेकिन तालिबान अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहा है कि भारत इस युद्ध में कतई शरीक न हो.
इसलिए, कश्मीर के मुद्दे पर तालिबान कभी पाकिस्तान के साथ नहीं जा रहा. वैसे भी 80 के दशक के आखिरी सालों में जबसे अफगानिस्तान संकट शुरू हुआ था, तबसे कश्मीर में अफगान लड़ाकों की कमी होती गई. पाकिस्तान ने जब 370 हटने के बाद कश्मीर की तुलना अफगानिस्तान से की तो तालिबान ने तुरंत विरोध किया और कहा कि दोनों की कोई तुलना नहीं. नारकोटिक्स की तस्करी भी भारतीय परिक्षेत्र में तालिबान के आने के बाद कम हुई है.