Sri Lanka Crisis: पड़ोसी मुल्क श्रीलंका वर्ष 1948 में आजादी मिलने के बाद अब तक के सबसे ख़राब आर्थिक दौर से गुजर रहा है. इस वजह से वहां लोग सड़कों पर उतरे, हिंसक प्रदर्शन हुए और फिर कर्फ्यू और आपातकाल लगाने तक की नौबत आई. भारी राजनीतिक उथल-पुथल के बाद अब पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने फिर से देश की कमान संभाली है.


श्रीलंका की यह स्थिति कैसे हुई और नए प्रधानमंत्री के समक्ष क्या चुनौतियां होंगी, इन्हीं सब मुद्दों पर वरिष्ठ राजनयिक, चीन में भारत के राजदूत और श्रीलंका में भारतीय उच्चायुक्त रह चुके अशोक कंठ ने भाषा को एक इंटरव्यू में कुछ सवालों के जवाब दिए. आइये देखते हैं क्या थे वो सवाल और उनके जवाब...


सवाल: श्रीलंका आज संकट के जिस दौर में है, उसकी मुख्य वजह क्या मानते हैं आप?


जवाब: अपनी आजादी के बाद श्रीलंका सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है. आर्थिक संकट के साथ ही वहां राजनीतिक संकट भी है. यह संकट पिछले कई सालों से पनप रहा था लेकिन हाल के वर्षों में हुए कुछ घटनाक्रमों ने वहां की स्थितियां और बिगाड़ दीं. 2019 के ईस्टर बम धमाकों में सैंकड़ों लोग मारे गए. इससे पर्यटन सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ, जो श्रीलंकाई अर्थव्यवस्था का बड़ा आधार रहा है. उसके बाद कोविड-19 आ गया और अब रुस-यूक्रेन युद्ध. इन सबके बीच वहां के शासकों की कुछ नीतिगत गलतियां रहीं, जिसने इस स्थिति को अप्रत्याशित और गंभीर बना दिया. देश का विदेशी मुद्रा भंडार खाली होने लगा. ईंधन और अन्य आवश्यक वस्तुओं की भारी कमी होने लगी. और उसके बाद वहां अब राजनीतिक अस्थिरता के हालात बन गए. अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन के कारण लोगों में भारी नाराजगी है. प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को इस्तीफा देना पड़ा और लोग राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफे की मांग कर रहे हैं. अब रानिल विक्रमसिंघे ने प्रधानमंत्री पद संभाला है. वह काफी अनुभवी हैं. आगे देखते हैं स्थितियां कैसी उभरती हैं. उनके सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं.


सवाल: श्रीलंका में आर्थिक व राजनीतिक अस्थिरता एशियाई देशों, खासकर भारत के लिए कितनी चिंता की बात है. क्या कोई खतरा देखते हैं आप?


जवाब: हम सब जानते हैं कि श्रीलंका और भारत करीबी मित्र देश हैं. अर्थव्यवस्था से लेकर सुरक्षा तक हमारे संबंध बहुआयामी हैं. यहां तक कि हमारे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंध हैं. श्रीलंका में अगर कुछ होता है तो उसका भारत पर निश्चित तौर पर असर पड़ेगा और अगर भारत में कुछ होता तो उसका श्रीलंका पर भी असर पड़ेगा. फिलहाल जो स्थिति श्रीलंका में है, वह लंबी खिंच सकती है. भारत सरकार ने सबसे पहले श्रीलंका की मदद की, वह भी ‘पड़ोसी प्रथम’ की नीति का अनुसरण करते हुए. एक अरब डॉलर की ऋण सहायता दी.


भारत का यह समर्थन श्रीलंका की जनता के लिए है, श्रीलंकाई समाज के लिए है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से श्रीलंका ने जब मदद की गुहार लगाई तो भारत ने इसमें भी पड़ोसी मुल्क का साथ दिया और इस प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए उसने हस्तक्षेप भी किया. इसलिए भारत ने इस मामले में बहुत सही रुख अपनाया है. मैं उम्मीद करता हूं कि आगे भी यह रुख जारी रहेगा.


सवाल: आज जो श्रीलंका की स्थिति है, उसमें क्या आप चीन की भी कोई भूमिका देखते हैं?


जवाब: निश्चित तौर पर, इसका संबंध चीन से है. श्रीलंका के वर्तमान आर्थिक हालात का संबंध उन खर्चीली परियोजनाओं से भी है जिसके लिए उसने विदेशी कर्ज लिए. कर्ज लेकर उसने बुनियादी ढांचा विकास की नीति अपनाई. श्रीलंका ने खास तौर पर चीन से बड़े पैमाने पर कर्ज लिया और हंबनटोटा बंदरगाह और मताला राजपक्षे अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा जैसी बड़ी और खर्चीली परियोजनाएं शुरू कीं. लेकिन इन परियोजनाओं से उम्मीद के मुताबिक रिटर्न नहीं मिला उसे. कर्ज की किस्तें उसे आज भी चुकानी पड़ रही हैं. मौजूदा परिस्थितियों में ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि चीन श्रीलंका की मदद करेगा लेकिन अभी तक कोई वैसी मदद नहीं मिली उसे. चीन इस पक्ष में भी नहीं था कि श्रीलंका आईएमएफ का रुख करे.


सवाल: श्रीलंका के घटनाक्रमों से भारत को क्या सीख लेनी चाहिए?


जवाब: दोनों देशों की परिस्थितियां अलग हैं और उनकी कोई तुलना नहीं की जा सकती. भारत एक बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था है और श्रीलंका के मुकाबले वह अच्छा प्रदर्शन कर रही है. फिर भी जब हमारा एक पड़ोसी देश चुनौतियों का सामना कर रहा है, तो इस परिस्थिति में हम दोनों को साथ मिलकर काम करना चाहिए. एक दूसरे का समर्थन करना चाहिए और इसी भावना के साथ आगे बढ़ना चाहिए.


सवाल: भारत में एक भावना यह भी है कि श्रीलंकाई शासकों ने धार्मिक आधार पर वहां विभाजन को बढ़ावा दिया और आज जो उसकी स्थिति है, उसके लिए वह भी एक कारण रहा?


जवाब: श्रीलंका में नस्लीय और धार्मिक मुद्दों का समाधान लंबित है. श्रीलंका में गृह युद्ध हुआ था जो दशकों तक चला और फिर 2009 में वह समाप्त हुआ. इसके बाद ही नस्लीय और धार्मिक विभाजन के मुद्दे का गंभीरता से समाधान होना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ. तमिल, ईसाई और मुसलमान सहित श्रीलंका के अन्य अल्पसंख्यक समुदायों में एक भावना है कि वह समाज में बराबर के भागीदार नहीं हैं. मेरा मानना है कि यह भी एक कारक रहा श्रीलंका की वर्तमान स्थिति के लिए. हालांकि इसके साथ ही मैं यह भी कहना चाहूंग कि हाल के दिनों में श्रीलंका में जो प्रदर्शन हुए उसमें समाज के सभी वर्ग शामिल थे. ऐसा नहीं था कि इसमें सिर्फ बहुसंख्यक समाज के ही लोग थे. इन प्रदर्शनों में मुसलमान, तमिल और ईसाई भी शामिल हुए. तो यह एक अच्छा संकेत है.


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