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स्मॉलपाक्स, टिटनेस, निमोनिया, मलेरिया..., हर साल मौतों के आंकड़े चौंकाने वाले

दुनिया भर में स्मॉलपाक्स, टिटनेस, निमोनिया, मलेरिया से होने वाली मौतों के आंकड़ें चौकाने वाले हैं. इन बिमारियों का सबसे ज्यादा शिकार 5 साल के बच्चे होते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2022 के आंकड़ों के मुताबिक कोविड-19 से अब तक पूरी दुनिया में मरने वालों की संख्या 1 करोड़ 50 लाख हो चुकी है. लेकिन आपको ये पता होना चाहिए कि कोरोना जैसी खतरनाक बीमारी से भी ज्यादा गंभीर परिणाम हम देख चुके हैं. 20 वीं शताब्दी के दौरान दुनिया चेचक जैसी बीमारी से लड़ रही थी.

1796 में चेचक के टीके की खोज की गई, तब लगा कि दुनिया चेचक मुक्त खुली हवा में सांस ले सकेगी, लेकिन सच्चाई इससे अलग थी. ऐसी ही कहानी टिटनेस, निमोनिया, मलेरिया जैसी बीमारियों की भी है. बीमारियों से मरने वाले लोगों के आंकड़े चौकाने वाले हैं. 

चेचक एकमात्र ऐसी बीमारी है जिसे पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया है. ये बीमारी वैरियोला वायरस की वजह से पैदा होती है. हालांकि चेचक ने ही वैक्सीनेशन की खोज की राह दिखाई. 

अकेले 20वीं सदी में चेचक वायरस से कोई 30 करोड़ लोगों की जान ले ली थी. ऐतिहासिक मौत का आंकड़ा इतना बड़ा था कि इसकी तुलना अक्सर ब्लैक प्लेग से की जाती है. वैज्ञानिकों और सार्वजनिक स्वास्थ्य का ख्याल रखने वालों की कोशिशों के सैकड़ों साल बाद 1970 के दशक में विश्वव्यापी टीकाकरण कार्यक्रम शुरू किए हुए. इस शुरुआत से सबको उम्मीद थी कि चेचक का खात्मा किया जा सकेगा. 

लेकिन आज की तरह उस दौरान टीकाकरण अभियानों को लेकर समाज में जागरुकता की बेहद कमी थी. कई लोग ऐसा मानते थे कि टीका लगवाना एक जोखिम भरा काम है. वहीं धार्मिक रुप से भी बड़े पैमाने पर आलोचक ईश्वरीय योजनाओं में दखल मानते थे. 19वीं सदी में जर्मनी के यहूदी विरोधी नस्लीय समूहों ने भी दावा किया कि टीके जर्मन लोगों को खत्म करने के लिए लगाए जा रहे हैं.  

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेचक के टीके के आने के बाद पहला चेचक उन्मूलन अभियान शुरू किया था. उसे उम्मीद थी कि हर देश में 80 फीसदी वैक्सीन कवरेज हो पाएगी.

टीके की आपूर्ति और अल्पविकसित देशों में खासतौर पर स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में कमी की वजह से इस को लक्ष्य पाना मुश्किल साबित हुआ.  1966 में महज 33 देशों में चेचक एक स्थानीय बीमारी के रूप में सीमित हो गई. चेचक से होने वाली आखिरी बीमारी सोमालिया में 1977 में उभरी थी. तीन साल बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेचक के पूरी तरह खत्म हो जाने का ऐलान कर दिया.

यूरोप में चेचक से लंबे समय से हो रही मौतों का इतिहास

यूरोपीय देशों में चेचक से 1774 से 1900 तक चेचक का शिकार होने वाले व्यक्तियों में से 1000 नागरिकों की मौत हुई. 1900 के दशक में करीब चेचक का शिकार हुए 1000 स्वीडिश में से 7 लोग मारे गए. 

जिन देशों ने पहले टीकाकरण कानून को अपनाया था, वहां पर चेचक से मृत्यु दर में ज्यादा कमी आई. 1870 से 1871 के फ्रेंको-प्रशिया युद्ध चल रहा था. उस समय ऑस्ट्रिया और बेल्जियम जैसे देशों ने चेचक के टीकाकरण को अनिवार्य नहीं बनाया. दोनों ही देशों से 1875 के बाद से चेचक से होने वाली मौतों की बड़ी संख्या दर्ज की गई. अन्य यूरोपीय देशों से तब तक चेचक से होने वाली मौतों में कमी देखी जा रही थी.  

अलग-अलग देशों में चेचक के कितने मामले

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 1970 में तीव्र चेचक उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया. तब तक पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका के अधिकांश देशों ने चेचक को लगभग समाप्त कर दिया था. वहीं दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और एशिया, विशेष रूप से भारत मरने वालों की बड़ी संख्या में कमी दर्ज की गई.

निमोनिया

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक 2019 में निमोनिया से 2.5 मिलियन लोगों की मौत हो गई. मरने वालों में लगभग एक तिहाई 5 साल से कम उम्र के बच्चे थे. यानी पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण निमोनिया बना. यूनिसेफ के दिए आंकड़ों के अनुसार हर 39 सेकेंड में एक बच्चे की मौत होती है. पूरी दुनिया में प्रति वर्ष 5 साल से कम आयु के लगभग 13 लाख बच्चों की जान केवल निमोनिया के कारण चली जाती है. 

निमोनिया बैक्टीरिया, वायरस या फंगी के कारण हो सकता है. इस बीमारी में एक या दोनों फेफड़ों में सूजन हो जाता है. जिसे एल्वियोली कहा जाता है. निमोनिया का शिकार हुए मरीज में एल्वियोली मवाद और तरल पदार्थ से भरा होता है. इससे सांस लेने में बहुत तकलीफ होती है. 

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक 2017 में मरने वाले सभी बच्चों की 15 प्रतिशत मृत्यु निमोनिया की वजह से हुई. पिछले तीन दशकों में निमोनिया से मरने वाले बच्चों की संख्या में काफी कमी आई है. 1990 में हर साल दो मिलियन से ज्यादा बच्चों की निमोनिया से मृत्यु हो गई. 2017 तक यह संख्या लगभग दो-तिहाई गिर गई थी.

डब्ल्यूएचओ के शोध के मुताबिक उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया में निमोनिया से बच्चों के मरने की सबसे ज्यादा संभावना है.  2019 में 5 देशों - भारत, नाइजीरिया, पाकिस्तान, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो और इथियोपिया में बच्चों की मौत सबसे ज्यादा निमोनिया के कारण हुई.  निमोनिया को गरीबों की बीमारी भी बताया जा चुका है.

यूनिसेफ की 2022 की एक रिपोर्ट ये बताती है कि निमोनिया से हर 45 सेकंड में कम से कम एक बच्चे की मौत हो जाती है.  इनमें से लगभग सभी मौतों को रोका जा सकता है. 

निमोनिया को कैसे रोका जा सकता है?

बच्चों में निमोनिया की सबसे बड़ी वजह कुपोषण है. कुपोषित बच्चों को निमोनिया के कारण अस्पताल में भर्ती होने की संभावना ज्यादा होती है. और इससे मरने की संभावना 15 गुना ज्यादा होती है. 

इनडोर वायु प्रदूषण और सेकेंड हैंड स्मोक से निमोनिया होने का खतरा बढ़ जाता है. 2017 में निमोनिया का शिकार हुए  29 प्रतिशत बच्चों में इनडोर वायु प्रदूषण के लक्षण देखे गए थे. वहीं बाहरी वायु प्रदूषण को सभी मौतों का 18 प्रतिशत जिम्मेदार माना गया.

एचआईवी से पीड़ित बच्चों में निमोनिया का खतरा ज्यादा

खसरा और एचआईवी जैसे रोगजनकों के संपर्क में आने से भी बच्चों में निमोनिया का खतरा बढ़ जाता है. यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक जब एचआईवी से संक्रमित बच्चे को एड्स होता है तो उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर होती है. ऐसे बच्चों में निमोनिया होने का खतरा भी बढ़ जाता है. 

2010 में भारत में निमोनिया से होने वाली सभी बच्चों की मौतों में से केवल 1% को सीधे एचआईवी के लिए जिम्मेदार ठहराया गया. ये आंकड़े एस्वाटिनी में 64% और लेसोथो में 62% अफ्रीका में कुल 17% एचआईवी के कारण थे. 

70 वर्ष और उससे ज्यादा की उम्र के लोगों में भी निमोनिया का खतरा देखा जाता है. 2017 में  निमोनिया से 300,000 से ज्यादा बुजुर्गों की मौत निमोनिया की वजह से हुई. 

निमोनिया का शिकार बुजुर्गों में धूम्रपान करने से 150,000 लोगों की मौत हुई. वहीं सेकेंड हैंड धूम्रपान के संपर्क में आने से इस आयु वर्ग में  73,000 मौतें हुई हैं. आंकड़े 2019 के हैं. 

निमोनिया का टीका 
न्यूमोकोकल कंजुगेट वैक्सीन (पीसीवी) निमोनिया को रोकता है. पीसीवी टीका 24 महीने से कम उम्र के बच्चों को दिया जाता है. इस वैक्सीन की निमोनिया के खिलाफ 85% प्रभावशीलता है. दूसरा टीका DTP3 है. DTP3 ज्यादा चलन में है.

अगर कम आय वाले देशों में PCV13 कवरेज DTP3 वैक्सीन के कवरेज तक पहुंच जाएगा, तो हर 399,000 बच्चों की मौतों को रोका जा सकता है. संयुक्त राज्य अमेरिका में 2009 तक निमोनिया बच्चों की मृत्यु का आठवां प्रमुख कारण रहा है. स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक भारत के मध्य प्रदेश में निमोनिया से हर दो घंटे में एक बच्चे की मौत हो रही है. यानी हर साल निमोनिया से पांच साल तक के करीब 13,029 बच्चों की मौत हो जाती है.

टिटनेस

टिटनेस एक जीवाणु से पैदा होने वाला रोग है. इसमें जबड़ों से दर्द शुरू होता है और मांसपेशियों में आता है. इससे पूरे शरीर के मूवमेंट पर असर पड़ता है. हाल के वर्षों में टिटनेस के रिपोर्ट किए गए मामलों के लगभग 11 प्रतिशत मामले बेहद ही गंभीर रहे हैं.

2017 में टिटनेस से दुनिया भर में 38,000 लोगों की मौत हो गई. मरने वालों में लगभग आधे (49%) पांच साल से कम उम्र के बच्चे थे. टिटेनस के खिलाफ वैक्सीन ने बीमारी को बड़े पैमाने पर कंट्रोल किया. नतीजतन 1990 के बाद से टिटनेस के मामलों और मौतों में 89 प्रतिशत की कमी आई है. 

यह क्लोस्ट्रीडियम टेटानी नामक विष पैदा करने वाले बैक्टीरिया के कारण होता है. 1990 में टिटनेस के कारण 314,000 लोग मारे गए थे, जबकि 2019 में 35,000 से कम मौतें हुई थी . यानी 87% की कमी दर्ज की गई. 

टिटनेस के ज्यादातर मामले 5 साल  से कम उम्र के बच्चों में 

आज कल टिटनेस के ज्यादातर मामले 5 साल से कम उम्र के बच्चों में होते हैं. हालांकि मामलों में गिरावट आई है. 2017 में टिटनेस से मरने वाले बच्चों की संख्या 49 प्रतिशत हो गई, जो 1990 में 76 प्रतिशत थी.

आज टिटनेस के अधिकांश नए मामले दक्षिण एशिया और उप-सहारा अफ्रीका से आते हैं. दुनिया भर में  इन दो क्षेत्रों से आने वाले सभी टिटनेस के मामले कुल मामलों का 82%  है. इसी तरह टिटनेस से होने वाली सभी मौतों में से 77 फीसदी लोगों की जान दक्षिण एशिया और उप-सहारा अफ्रीका में जाती है.

अलग-अलग देश में टिटनेस के नए मामले

1990 में नेपाल, इरिट्रिया, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में टिटनेस की दर दुनिया में सबसे ज्यादा थी. सभी प्रति 100,000 लोगों पर 70 से ऊपर के मामले इन्हीं देशों से आए थे. 2017 तक सिर्फ दो देशों, दक्षिण सूडान और सोमालिया में टिटनेस के मामलों की दर प्रति 100,000 लोगों पर 10 से ज्यादा थी.

टिटनेस से बचाता है वैक्सीनेशन

आज हमारे पास टिटनेस के खिलाफ एक प्रभावी टीका है. वैक्सीन को डीटीपी के रूप में जाना जाता है और इसमें ऐसे तत्व होते हैं जो न केवल टिटनेस से बल्कि डिप्थीरिया और पर्टुसिस से भी बचाते हैं.

टीकाकरण कवरेज से टिटनेस में गिरावट

1980 से पहले टीकाकरण कार्यक्रमों की मदद से विकसित देशों में टिटनेस के मामलों में गिरावट आई थी. डब्ल्यूएचओ के मुताबिक 1980 में टिटनेस के कुल मामलों में 10 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई. ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज प्रोजेक्ट ने 1990 से टिटनेस के मामलों की वास्तविक संख्या (न केवल पुष्टि की गई) का अनुमान लगाया है.  दोनों डेटा सेट इस बात से सहमत हैं कि टिटनेस के मामलों में कमी आई है ,क्योंकि ज्यादा लोगों को टिटनेस का टीका लगाया.

1983 और 1990 के बीच ग्लोबल टिटनेस वैक्सीन कवरेज 38 प्रतिशत से बढ़कर 77 प्रतिशत हो गया. यह 2015 में बढ़कर 86 प्रतिशत हो गया है.

मलेरिया

मलेरिया एक ऐसी बीमारी है जो संक्रमित मच्छरों द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलती है. प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम सबसे खतरनाक पैरासाइट है . इनके कांटने से मलेरिया में कोमा और मृत्यु का कारण बनता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का अनुमान है कि 2019 में मलेरिया की वजह से 558,000 लोग मारे गए. इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) इस अनुमान को 643,000 पर रखता है.

ज्यादातर पीड़ित बच्चे हैं. यह बाल मृत्यु दर के प्रमुख कारणों में से एक है. 2017 में मरने वाले हर बारहवें बच्चे की मलेरिया के कारण मृत्यु हो गई.

WHO  का अनुमान

21 वीं सदी की शुरुआत के बाद से डब्ल्यूएचओ ने मलेरिया से मरने वाले लोगों की संख्या के वैश्विक रिकॉर्ड पेश किया.  2000 और 2015 के बीच वैश्विक मृत्यु दर लगभग 40% कमी देखी गई. 2000 में 896,000 मौतों,  2015 में 562,000 दर्ज हुई. तब से मलेरिया की वजह से होने वाली मौतों में कमी देखी गई है. 

दुनिया भर के देशों में अफ्रीका मलेरिया से सबसे ज्यादा प्रभावित है. 2019 में मलेरिया से होने वाली वैश्विक मौतों का 96% अफ्रीकी महाद्वीप में हुआ. अफ्रीका में साल 2000 के बाद से मौतों में काफी गिरावट आई है, लेकिन दुनियाभर के देशों के मुकाबले अब भी सबसे ज्यादा है. 

आईएचएमई से मलेरिया से मौत का अनुमान

इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (आईएचएमई) साल 1990 के बाद से मलेरिया से होने वाली मौतों का आंकड़ा पेश किया. 1990 में लगभग 850,000 मौतें बढ़ी. 2004 में लगभग 965,000 पर पहुंच गया, और फिर 2019 में लगभग 650,000 तक गिरावट दर्ज की गई.

ये आंकड़े डब्ल्यूएचओ के मुकाबले ज्यादा हैं.

उम्र के आधार पर मलेरिया से होने वाली मौतें

वैश्विक स्तर पर मलेरिया से होने वाली मौतों के लिए सबसे कमजोर आयु वर्ग पांच साल से कम उम्र के बच्चे हैं . 2019 में 5 साल के बच्चों के बीच मलेरिया से होने वाली मौतें 55 प्रतिशत थी.

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