Soviet-Afghan War: एक दशक लंबी जंग के बाद साम्राज्यों की कब्रगाह बने अफगानिस्तान में दफ्न हो गया था सोवियत संघ
Soviet Union Afghanistan: 15 फरवरी 1989 को ही तत्कालीन सोवियत संघ की सेना की अंतिम टुकड़ी ने अफगानिस्तान से वापसी की थी. यह घटना देखने में छोटी लगे, लेकिन इसका असर काफी बड़ा था.
How Soviet-Afghan War Damaged Soviet Union: 15 फरवरी वैसे तो आम तारीखों की तरह ही है, लेकिन कैलेंडर से अलग इसे इतिहास की नजर से देखेंगे तो इसमें एक ऐसी घटना दिखाई देगी, जो देखने में बेशक छोटी लगे, लेकिन इसका असर बहुत बड़ा था. आज भी उस असर का वजूद जिंदा है. जी हां, हम बात कर रहे हैं 15 फरवरी 1989 की. इसी दिन तत्कालीन सोवियत संघ की सेना की अंतिम टुकड़ी ने अफगानिस्तान से वापसी की थी.
दरअसल, सोवियत संघ की सेना की वापसी उसकी हार थी. एक दशक लंबी जंग के बाद साम्राज्यों की कब्रगाह बने अफगानिस्तान में सोवियत संघ भी दफ्न हो गया था. आइए जानते हैं अफगानिस्तान में ऐसा क्या था कि इतने ताकतवर मुल्क को भी हार का सामना करना पड़ा था. क्यों अफगानिस्तान को साम्राज्यों की कब्रगाह कहा जाता है?
इस वजह से अफगानिस्तान में घुसी थी सोवियत सेना
अफगानिस्तान में सोवियत संघ की एंट्री की भूमिका कई साल पहले हुई घटना से बनी थी. दरअसल, साल 1920 के दौरान अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अमीर अमानुल्लाह ख़ान हुआ करते थे. उन्होंने देश को सुधारने और विकास के लिए कई अहम फैसले लिए थे. ऐसा ही एक फैसला था महिलाओं के बुरक़ा पहनने की प्रथा को खत्म करना. इस तरह के फैसलों से कुछ जनजातियां और धार्मिक नेता उनके खिलाफ हो गए. यहीं से अफगानिस्तान में गृह युद्ध की शुरुआत हुई, जो कई दशकों तक चलता रहा.
संघर्ष के बीच 1978 में अफगान में तख़्तापलट हुआ और कम्युनिस्ट सरकार का गठन हुआ. हालांकि उसे भी काफी संघर्ष करना पड़ रहा था. साल 1979 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया. उसका मकसद तब की असंगठित कम्युनिस्ट सरकार को सत्ता में बनाए रखना था. पर सोवियत संघ का यह कदम अफगानिस्तान में मौजूद कई मुजाहिदीन संगठनों को पसंद नहीं आया. उन्होंने इसका विरोध करते हुए सोवियत सेना के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी. इस युद्ध में मुजाहिदीनों की मदद अमेरिका, पाकिस्तान, सऊदी अरब चीन और ईरान जैसे देशों ने की. उन्हें इन देशों ने पैसा और हथियार दिया.
इस तरह ताकतवर सोवियत संघ को मिली थी शिकस्त
अफगानिस्तान में घुसने के बाद सोवियत सेना ने ज़मीनी और हवाई हमले करने शुरू किए. सेना ने गांवों और फसलों को नष्ट करना शुरू कर दिया. इससे स्थानीय आबादी को अपना घर छोड़ना पड़ा, जबकि कई बेगुनाह मारे गए. एक दो साल बाद सोवियत संघ की सेना ने अफगानिस्तान के बड़े शहरों और कस्बों पर कब्जा कर लिया, लेकिन इस दौरान उन्हें मुजाहिदीनों से चुनौती मिलती रही. मुजाहिदीन और गुरिल्ला सैनिक सोवियत संघ की सेना को लगातार नुकसान पहुंचाती रही. यह युद्ध कुछ और साल तक चलता रहा. देखते ही देखते युद्ध को 9 साल हो चुके थे, लेकिन सोवियत सेना अब भी अफगानिस्तान पर नियंत्रण नहीं कर पाई थी. इस बीच तत्कालीन सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव ने देश की अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए युद्ध को रोकना जरूरी समझा और उन्होंने साल 1988 में सैनिकों को वापस बुलाने की घोषणा की.
1991 में हो गया था सोवियत संघ का विघटन
इस बीच सोवियत सेना अफगानिस्तान से धीरे-धीरे करके निकलने लगी. 15 फरवरी को सेना की आखिरी टुकड़ी भी अफगान से निकल गई, लेकिन इस युद्ध ने सोवियत संघ को बर्बाद कर दिया. उसकी छवि को काफी नुकसान पहुंचा. अपनी पूरी ताकत लगाने और 10 साल की जद्दोजहद के बाद भी वह मुजाहिदीनों से हार गया. इस जंग में उसे काफी जान माल का नुकसान उठाना पड़ा था. इस बीच देश की आर्थिक स्थिति भी गड़बड़ा रही थी. इन सब संकटों के युद्ध खत्म होने के 2 साल बाद यानी साल 1991 में सोवियत संघ का विघटन भी हो गया.
इन देशों को भी अफगानिस्तान में मिली है हार
ऐसा नहीं है कि सिर्फ सोवियत संघ को ही यहां हार का सामना करना पड़ा. इससे पहले और बाद में भी कई ताकतवर देशों को यहां शिकस्त ही मिली है. बात 19वीं सदी की है, तब दुनिया के सबसे ताकतवर माने जाने वाले ब्रितानी साम्राज्य ने भी अफगानिस्तान को जीतने के मकसद से इस पर 1839 से 1919 के बीच तीन बार हमला किया, लेकिन 1919 में ब्रिटेन को यहां से भागना पड़ा. वहीं, साल 2001 में अमेरिका ने भी अफगान पर हमला किया. अमेरिकी सैनिक यहां 20 साल से भी ज्यादा समय तक रहे. सालों युद्ध किया, लेकिन वे अफगान को पूरी तरह अपने नियंत्रण में नहीं ले सके. अंत में 2021 में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना वापस बुलाने का फैसला किया. 31 अगस्त 2021 को अमेरिकी सेना ने पूरी तरह इस देश को खाली कर दिया. अमेरिकी सैनिकों के जाते ही एक बार फिर तालिबान ने अफगान पर कब्जा कर लिया.
इस वजह से अफगान को जीतना है मुश्किल
अफगानिस्तान के इतिहास पर 'अफगानिस्तान: साम्राज्यों की कब्रगाह' नाम की किताब लिखने वाले डिफेंस और फॉरेन पॉलिसी एनालिस्ट डेविड इस्बी कहते हैं कि "ऐसा नहीं है कि अफगानिस्तान काफी शक्तिशाली देश है या उसकी सेना ताकतवर है. उसकी सफलता की वजह अफगानिस्तान की संरचना और आक्रमणकारियों की कुछ गलतियां भी जिम्मेदार हैं." वह कहते हैं अफ़ग़ानिस्तान एक जटिल देश है, जहां आधारभूत ढांचा जर्जर है और विकास का नामोनिशान नहीं है. यहां पहाड़ी एरिया भी काफी है. ऐसे में आक्रमणकारियों को काफी चुनौती झेलनी पड़ती है.
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