Same Sex Marriage: समलैंगिकों को भारत में भी मिली 'सुप्रीम' जीत, जानिए कैसे 1950 में ही सेक्सोलॉजिस्ट जॉन मनी के एक अध्यन के बाद हुई थी इस संघर्ष की शुरुआत
Same Sex Marriage: मुख्य न्यायाधीश ने कहा, सिर्फ किसी व्यक्ति को उसके जेंडर के आधार पर शादी करने से नहीं रोका जा सकता है. ट्रांसजेंडर को भी इसका हक है. समलैंगिक जोड़े मिलकर बच्चे को गोद ले सकते हैं.
Same Sex Marriage: समलैंगिक विवाह पर सुप्रीम कोर्ट ने आज (17 अक्टूबर को) अहम फैसला सुनाया. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि साथी चुनने का अधिकार सबको है इसलिए सरकार समलैंगिक संबंधों को कानूनी दर्जा दे. यह फैसला समलैंगिक समाज की बड़ी जीत है, लेकिन यह लड़ाई इतनी आसान भी नहीं थी. ट्रांसजेंडर लोगों को लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.
आज हम बताएंगे कैसे इनके संघर्षों का सफर आगे बढ़ता गया. किसने इसकी शुरुआत की. यह बात है 1950 और 60 के दशक की. तब मनोवैज्ञानिक जॉन मनी की ओर से बड़े पैमाने पर इस वर्ग की समस्या को उठाया गया. हालांकि शुरुआत में उन्हें कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा, लेकिन धीरे-धीरे राह आसान बनती गई.
जॉन मनी की इन कोशिशों से हुई शुरुआत
लेखक टेरी गोल्डी का कहना है कि सेक्सोलॉजिस्ट जॉन मनी वास्तव में दो लिंगों पर पूरी तरह विश्वास नहीं करते थे. मनी एक न्यूज़ीलैंड-अमेरिकी सेक्सोलॉजिस्ट थे, जिन्होंने इंटरसेक्स और ट्रांसजेंडर लोगों के साथ अभूतपूर्व काम किया. उनकी केस स्टडी के आधार पर ही आज लिंग और कामुकता के बारे में दृष्टिकोण और चर्चाओं को आकार दिया जाता था. 2015 में जब अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट की ओर से समलैंगिक शादी को लीगल करार दिया गया तब से ही उनके दृष्टिकोण की चर्चा खूब हुई.
इंटरसेक्स वालों पर शुरू से ही करने लगे थे काम
प्रतिभाशाली और विवादास्पद माने जाने वाले मनी ने 500 पेपर और 40 किताबें लिखीं. वह शिक्षा जगत के साथ-साथ जनसंचार माध्यमों में भी निपुण थे. मनी ने मैसाचुसेट्स जनरल अस्पताल और हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में उन लोगों के साथ क्लिनिकल कार्य शुरू किया जो इंटरसेक्स हैं, जो महिला या पुरुष की विशिष्ट परिभाषाओं में फिट नहीं होते हैं. वह 1951 में बाल्टीमोर में जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय चले गए.
डेविड रीमर की मौत ने बदल दी सोच
मनी का मानना था कि स्पष्ट रूप से पुरुष या महिला जननांग के बिना, बच्चा सामाजिक रूप से अच्छी तरह से काम नहीं कर सकता है. पर डेविड रीमर ने उनकी सोच बदल दी. दरअसल, रीमर एक कनाडाई व्यक्ति था, जो जैविक रूप से पुरुष के रूप में पैदा हुआ था, लेकिन एक असफल खतना के दौरान गलती से उसका लिंग नष्ट हो जाने के बाद वह महिला के रूप में पला-बढ़ा था. मनी का मानना था कि यह दुनिया पुरुष और महिला के मामले में इतनी द्विआधारी है कि हमें लोगों को इससे निपटने में मदद करने के तरीकों का पता लगाना होगा और वह रीमर मामले से संबंधित मनी की बड़ी गलतियों में से एक थी. मनी ने महसूस किया कि बिना लिंग वाला लड़का लड़का नहीं माना जाएगा. रीमर जीवन भर अवसाद से पीड़ित रहा. रीमर ने बाद में आत्महत्या कर ली थी. इस घटना ने जॉन मनी की सोच बदल दी और वह इस पर और अच्छे से काम करने लगे.
ट्रांसजेंडरों को लेकर भी की बात
गोल्डी का कहना है कि मनी ने मरीजों को सेक्स और लिंग की द्विआधारी समझ के अनुरूप प्रोत्साहित करके उन्हें विफल कर दिया होगा, जिस पर वह खुद पूरी तरह से विश्वास नहीं करते थे. साथ ही, उन्होंने चिकित्सा आविष्कार के शुरुआती दिनों में ट्रांसजेंडर लोगों को उनके पुष्टिकृत लिंग में रहने के लिए समर्थन पाने में मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. उनका मानना था, "आपको वह बनने का अधिकार दिया जाना चाहिए जो आप बनना चाहते हैं."
लिंग पहचान जैसे शब्दों को किया मशहूर
1955 में वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पुरुषों को महिलाओं से अलग करने वाली जैविक विशेषताओं और व्यवहार संबंधी विशेषताओं के बीच अंतर बताने के लिए 'सेक्स' के विपरीत 'लिंग' शब्द का इस्तेमाल किया था. बाद में उन्होंने 'लिंग पहचान' जैसे शब्दों को लोकप्रिय बनाया और 1966 में अमेरिका के बाल्टीमोर में जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय में दुनिया का पहला लिंग-पहचान क्लिनिक भी स्थापित किया, जो ट्रांसजेंडर रोगियों के मनोवैज्ञानिक और चिकित्सा उपचार में विशेषज्ञता रखता था.
लोगों की सोच भी बदली
सबसे बढ़कर, मनी ने उस दृष्टिकोण को आगे बढ़ाया, जो आज के ट्रांस आंदोलन के लिए इतना महत्वपूर्ण है कि बेशक हम जैविक रूप से निर्धारित यौन विशेषताओं के साथ पैदा हो सकते हैं, लेकिन वे यह निर्धारित नहीं करते हैं कि हम पुरुष हैं या महिला. ये उनकी कोशिश ही है कि आज ट्रांस बच्चों की धारणा को संचालित करता है. इसका मतलब है कि कोई व्यक्ति पुरुष जननांग के साथ पैदा हो सकता है, लेकिन फिर भी वह महिला बन सकता है.
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