पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों पर आधारित खास सीरीज तख्तापलट में आज पढ़िए कहानी पाकिस्तान के छठे वजीर-ए-आजम इब्राहिम इस्माइल चुंदरीगर की...


पाकिस्तान के फाउंडर मेंबर में से एक इस्माइल इब्राहिम चुंदरीगर की पाकिस्तानी सियासत में 1947 में एंट्री हुई थी. जब भारत से अलग होकर पाकिस्तान एक मुल्क बना तो लियाकत अली खान को पाकिस्तान का पहला वजीर-ए-आजम बनाने वालों में इस्माइल इब्राहिम चुंदरीगर भी शरीक थे. लियाकत अली खान के नेतृत्व वाली पाकिस्तान की पहली सरकार में चुंदरीगर को कॉमर्स मिनिस्टर का पद दिया गया था. हालांकि वो इस पद पर एक साल से भी कम वक्त तक ही रहे, क्योंकि मई 1948 में लियाकत अली खान ने उन्हें अफगानिस्तान में पाकिस्तान का राजदूत बनाकर भेज दिया था. हालांकि दो साल बीतते-बीतते फिर से पाकिस्तानी सियासत में उनकी एंट्री हो गई. पहले उन्हें खैबर-पख्तूनवा और फिर बाद में पंजाब का गवर्नर बनाया गया. लेकिन 1953 में जमात-ए-इस्लामी की पहल पर अहमदिया मुस्लिमों के खिलाफ पंजाब में दंगे शुरू हुए तो गवर्नर जनरल रहे मलिक गुलाम मोहम्मद ने पंजाब में मार्शल लॉ लगा दिया. तब इस्माइल इब्राहिम चुंदरीगर को भी अपना पद छोड़ना पड़ा था.



नेता से ज्यादा कामयाब वकील रहे चुंदरीगर 
1956 में जब हुसैन शहीद सुहरावर्दी पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम बने तो उस वक्त इस्माइल इब्राहिम चुंदरीगर को पाकिस्तान का कानून मंत्री बनाया गया. लेकिन जब राष्ट्रपति इस्कंदर अली मिर्जा की धमकी के बाद वजीर-ए-आजम सुहरावर्दी ने पद से इस्तीफा दिया तो मुस्लिम लीग के नेता होने के बावजूद अवामी लीग, रिपब्लिकन पार्टी, कृषक श्रमिक और निजाम-ए-इस्लाम पार्टी ने भी बतौर वजीर-ए-आजम इस्माइल इब्राहिम चुंदरीगर के नाम का समर्थन किया. इसकी वजह ये थी कि सुहरावर्दी के कार्यकाल में कानून मंत्री रहने के दौरान चुंदरीगर ने खुद को एक नेता से ज्यादा एक कामयाब वकील के तौर पर पाकिस्तान के सामने पेश किया था.


सत्ता मिलते ही शुरू हो गई बगावत
इसका इनाम उन्हें वजीर-ए-आजम की कुर्सी के तौर पर मिला, जब पाकिस्तान के पक्ष और विपक्ष दोनों ने ही चुंदरीगर का समर्थन कर दिया. लेकिन चुंदरीगर की यही कमजोरी भी साबित हुई कि वो एक अच्छे नेता से ज्यादा एक काबिल वकील थे. यही वजह थी कि जब चुंदरीगर ने सत्ता संभालने के साथ ही नेशनल असेंबली के पहले ही सेशन के दौरान पाकिस्तान में राष्ट्रपति को चुनने वाले इलेक्टोरल कॉलेज में बदलाव की कोशिश की तो उनकी पार्टी के नेताओं के साथ ही उनके समर्थन में उतरी पार्टियों के नेताओं ने भी बगावत कर दी. राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा भी इलेक्टोरल कॉलेज के बदलाव के पक्षधर नहीं थे. नतीजा ये हुआ कि रिपब्लिकन पार्टी और अवामी लीग ने संसद में चुंदरीगर के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया.


चुंदरीगर को भी पता था कि अगर रिपब्लिकन और अवामी दोनों ही उनका विरोध कर रहे हैं, तो उनकी सत्ता किसी भी सूरत में बच नहीं सकती. हालात को देखते हु इब्राहिम इस्माइल चुंदरीगर ने 11 दिसंबर, 1957 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया और इस तरह से पाकिस्तान की आजादी के 10 साल के इतिहास में वो सबसे कम दिन यानी 55 दिन के वजीर-ए-आजम साबित हुए. उनके बाद रिपब्लिकन पार्टी के नेता सर फिरोज खान नून अवामी लीग, नेशनल अवामी पार्टी और कृषक श्रमिक पार्टी के सहयोग से पाकिस्तान के सातवें वजीर-ए-आजम हुए.


तख्तापलट सीरीज की अगली किस्त में पढ़िए कहानी सर फिरोज खान नून की, जिन्हें एक साल के अंदर ही वजीर-ए-आजम की कुर्सी छोड़नी पड़ी, क्योंकि तब पाकिस्तान के राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने खुद की कुर्सी बचाने के लिए संसद को भंग कर पहली बार पूरे पाकिस्तान में मार्शल लॉ लागू कर दिया, जो आगे चलकर पाकिस्तान की नियति साबित हुआ. 


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