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जानिए, तियानानमेन चौक नरसंहार की कहानी, जब चीन ने क्रूरता की सारी हदे पार कर दी थी

तियानानमेन चौक नरसंहार की 30वीं बरसी मंगलवार यानी चार जून को मनायी जायेगी. इस मौके पर आइए जानते हैं क्या है तियानानमेन चौक नरसंहार ?

नई दिल्ली: इतिहास के पन्नों में कई ऐसे वाकये दर्ज होते हैं जो लोकतंत्र के पक्ष में उठने वाली आवाज को दबाने की कहानी कहते हैं. ऐसा ही एक वाकया चीन की राजधानी बीजिंग के तियानानमेन चौक पर 1989 में घटी थी. 4 जून 1989 को तियानानमेन चौक पर कुछ ऐसा हुआ जिसने मानवता को शर्मसार कर दिया. दरअसल चीन में 4 जून, 1989 को तियानानमेन चौक पर कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के शासन के दौरान चाइना में लोकतंत्र के पक्ष में आवाजें उठी थीं, जिन्हें हमेशा के लिए खामोश कर दिया गया. चाइना की सरकार ने हजारों प्रदर्शनकारियों को मरवा दिया.

क्यों हुआ तियानानमेन चौक पर विरोध प्रदर्शन

तियानानमेन चौक पर तीन और चार जून 1989 को सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए. ये विरोध प्रदर्शन अप्रैल 1989 में चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव और उदार सुधारवादी हू याओबांग की मौत के बाद शुरू हुए थे. हू चीन के रुढ़िवादियों और सरकार की आर्थिक और राजनीतिक नीति के विरोध में थे और उन्हें हटा दिया गया था.

दरअसल 1989 के आसपास शीत युद्ध में दुनिया का साम्यवादी देश सोवियत संघ, अमेरिका से हार चुका था. वह अब टूटने की कगार पर था. इस वक्त कई देशों में लोकतंत्र स्थापित हो रहा था, तो वहीं कुछ देशों में इसका विरोध किया जा रहा था. ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ इन्हीं में से एक देश था. वहां की सरकार हर तरह के लोकतंत्र की आवाज को दबाना चाहती थी. इसके लिए वह सैन्य सहायता लेती थी.

1986-87 में भौतिक शास्त्री फ़ांग लिजी के जनतंत्र समर्थक विचारों से प्रेरित हजारों छात्रों ने सरकार विरोधी आंदोलन किया था. प्रदर्शनकारियों ने लोकतंत्र, आर्थिक सुधारों की मांग जोर शोर से उठाई. इसी बीच देंग शियाओ पिंग ने हू याओ बेंग को इस व्यापक विरोध-प्रदर्शन को प्रोत्साहित करने के आरोप में पार्टी से बाहर कर दिया. ‘हू याओबांग’ 1980 से 1987 तक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव रहे. उनकी छवी एक सुधारवादी नेता की थी. इसके बाद 5 अप्रैल, 1989 को ‘हू याओबांग’ की हार्ट अटैक से मौत हो गई. उनकी मौत के बाद प्रदर्शन और बड़ा हो गया. छात्रों ने हू याओबांग की याद में मार्च आयोजित किया था.

जानिए, तियानानमेन चौक नरसंहार की कहानी, जब चीन ने क्रूरता की सारी हदे पार कर दी थी

जब मार्च के लिए तियानानमेन चौक को चुना गया तो ‘तियानानमेन चौक’ युवा आंदोलन का केंद्र बन गया. हालात बेकाबू होते देख सरकार ने ‘मार्शल लॉ’ लागू कर दिया, जोकि आगे जाकर एक गलत फैसला साबित हुआ. चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी ने प्रदर्शन का निर्दयतापूर्वक दमन कर दिया. चीन की सेना ने बंदूकों और टैंकरों के जरिए शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे निशस्त्र छात्रों का दमन किया. ये लोग बीजिंग के इस मशहूर चौक पर सेना को रोकने की कोशिश कर रहे थे. यहां छात्र सात सप्ताह से डेरा जमाए बैठे थे. चीनी सेना ने भीषण बल प्रयोग किया. इस सैन्य कार्रवाई में अनेक लोग मारे गए थे. लोकतंत्र की बहाली के लिए प्रदर्शन करनेवाले छात्रों पर सेना के हिंसक प्रयोग की आलोचना विश्व भर में हुई थी.

कितने लोग मारे गए

एक रिपोर्ट के अनुसार, बीजिंग के तियानानमेन चौक पर हुए नरसंहार के 28 साल बाद 2017 में ब्रिटेन के नेशनल आर्काइव्ज में पाए गए एक दस्तावेज को सार्वजनिक किया गया. जिसके अनुसार जून, 1989 में लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनकारियों पर चीनी सेना की कार्रवाई में कम से कम 10,000 लोगों की जान गई थी. वहीं चीनी सरकार ने कहा था कि क्रांति विरोधी दंगों में 200 नागरिक मारे गए थे और वहीं दर्जनों पुलिस व सैनिक घायल हुए हैं.

जानिए, तियानानमेन चौक नरसंहार की कहानी, जब चीन ने क्रूरता की सारी हदे पार कर दी थी

तियानानमेन चौक नरसंहार को चीन ठहराता है सही

चीनी प्रशासन और सरकार आज भी इस कदम को सही ठहराती है. चीन के रक्षा मंत्री ने तियानानमेन चौक पर प्रदर्शनकारियों पर 1989 में की गई कार्रवाई को सही करार दिया.  रक्षा मंत्री वेई फेंगहे ने सिंगापुर में क्षेत्रीय सुरक्षा के एक फोरम से कहा, 'वह घटना एक राजनीतिक अस्थिरता थी और केंद्र सरकार ने संकट को रोकने के लिए कदम उठाए जो एक सही नीति थी.'

तियानानमेन चौक कार्यकर्ताओ को अब कोई उम्मीद नहीं

तियानानमेन चौक पर 30 साल पहले टैंकों और गोलियों की मार झेलकर लोकतंत्र के पक्ष में प्रदर्शन करने वाले कार्यकर्ताओं को अपना सपना अब दूर की कौड़ी नजर आ रहा है. तियानानमेन चौक पर हुए प्रदर्शन के बाद चीन को छोड़कर अन्य देशों में रहने को मजबूर इन प्रदर्शनकारियों को लगता है कि हालात लगातार बिगड़ रहे हैं और लोकतंत्र से विपरीत दिशा में जा रहे हैं. उनका मानना है कि शी जिनपिंग के शासनकाल में चीन दमन की उस स्थिति में पहुंच गया है जहां वह माओ के शासन के वक्त था.

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