अमेरिका ने हाल ही में एक द्विदलीय प्रस्ताव पारित किया. इसके तहत मैकमोहन रेखा को अरुणाचल प्रदेश और चीन के बीच अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में मान्यता दी गई है और पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश को भारत का अभिन्न अंग' बताया गया है. 


अमेरिकी सीनेट में प्रस्ताव पेश करने वाले सांसदों में से एक सीनेटर बिल हैगर्टी ने कहा कि, चीन मौजूदा वक्त में हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए गंभीर खतरा पैदा कर रहा है, ऐसे में अमेरिका के लिए ये जरूरी हो जाता है कि वो अपने रणनीतिक साझेदारों, खासकर भारत के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा रहे. 


हेगर्टी और सीनेटर जेफ मर्कले ने प्रस्ताव को पेश करते हुए कहा कि ये हम ये कदम भारतीय सेना और चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के बीच हुई झड़पों के बाद उठा रहे हैं. इस प्रस्ताव के बाद ये साफ हो गया कि सिनेट अरुणाचल प्रदेश को साफ तौर से भारत के अभिन्न हिस्से के रूप में अपना समर्थन देता है. प्रस्ताव पेश करते हुए हेनरी ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर यथास्थिति को बदलने की चीन की मांग की निंदा की.   


बता दें कि अमेरिका का ये प्रस्ताव पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी पीआरसी के इस दावे को भी खारिज करता है जिसके मुताबिक अरुणाचल प्रदेश चीन का क्षेत्र है. सीनेटर जेफ मर्कले ने कहा, ‘अमेरिका स्वतंत्रत, निष्पक्ष और कानून के शासन का समर्थन करता है. प्रस्ताव से ये साफ है कि अमेरिका अरुणाचल प्रदेश को भारत का अभिन्न हिस्सा मानता है, यानी अमेरिका अरुणाचल प्रदेश को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का हिस्सा नहीं मानता है. 


पुरानी है चीन और भारत की लड़ाई


1962 के बाद से अब तक भारत और चीन सिक्किम-भूटान-तिब्बत सीमा को लेकर आमने सामने खड़े होते रहे हैं.  ताजा मामला 9 दिसंबर 2022 को अरुणाचल प्रदेश के तवांग में भारत और चीन के बीच हुई झड़प का है. इस झड़प के बाद भारतीय सेना का कहना था कि झड़प में दोनों देशों के कुछ सैनिक घायल हुए हैं लेकिन चीनी सैनिकों की संख्या ज्यादा है. इससे पहले साल 2020 में दोनों देशों के बीच हुआ संघर्ष काफी हिंसक था. 1975 के बाद से दोनों देशों के सैनिकों के बीच गलवान में झड़प हुई थी.


झड़प के बाद चीन ने पूर्वी लद्दाख की पैंगोंग त्सो झील में अपनी गश्ती नौकाओं की तैनाती बढ़ा दी थी.  ये इलाका लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा के पास है. भारत चीन के साथ 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा साझा करता है. ये सीमा जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश से होकर गुजरती है. 


खास बात ये है कि चीन का भारत के साथ ही कई देशों से सीमा को लेकर विवाद है. इसमें कुल 14 देश शामिल है. इस लिस्ट में  भारत-पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, कज़ाखस्तान, मंगोलिया, रूस, उत्तर कोरिया, वियतनाम, लाओस, म्याँमार, भूटान और नेपाल शामिल हैं यानी इन सभी देशों की सीमाएं चीन के साथ लगती हैं. 


समय के साथ चीन ने अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान, कज़ाखस्तान, म्याँमार, पाकिस्तान और रूस से अपने विवाद काफी हद तक सुलझाएं हैं , लेकिन ज्यादातर पड़ोसी देशों के साथ ये विवाद अभी भी चल रहा है.  मौजूदा वक्त में चीन का सबसे बड़ा सीमा विवाद भारत और कुछ हद तक भूटान के साथ चल रहा है. भू-सीमा के अलावा चीन के साथ चार देशों की समुद्री सीमा भी लगती है. इसमें  जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम और फिलीपींस शामिल है.


विवाद की जड़ें कहां से जुड़ी है समझिए 


जानकारों के मुताबिक औपनिवेशिक शासन की वजह से  एशियाई देशों के बीच सीमा विवाद पैदा हुआ था.  औपनिवेशिक ताकतें जब अपने चरम पर थी तब सबने अपने मनमाने तरीके से कई आधुनिक देशों का निर्माण किया. वहीं अफ्रीका, एशिया, अमेरिकी देशों ने अपने साथ लगने वाली सीमाओं के साथ कभी कठोर रिश्ते कायम नहीं किए. लेकिन चीन को इस दौरान कई संधियों में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया. अब चीन अपने उदय के बाद इन्हीं वजहों से विवाद खड़ा करता है.  


 चीन को मजबूर करने वाली संधिया क्या थी


19वीं और 20वीं शताब्दी के शुरुआत में चीन ने मजबूरी में ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, रूस और जापान के साथ कई संधिया पर हामी भरी.  इनमें से कई संधिया ऐसी थीं जिसमें चीनी सरकार ने उपनिवेशवादियों को संरक्षण दिया. इसका मतलब ये हुआ कि चीन ने इन देशों को बिजनेस करने के लिए  विशेषाधिकार दिये. इस दौरान चीन ने अपने कुछ इलाके भी इन देशों को सौंपे.


इस लिस्ट में चीन ने ब्रिटेन को हांगकांग, पुर्तगाल को मकाउ, अपने उत्तरी क्षेत्र का एक बड़ा भूभाग रूस के जार को , फ्राँस को अन्नम (अब वियतनाम में) और  जापान को ताइवान का भूभाग सौंपे थे. 
हालांकि सोवियत संघ ने  रूसी क्रांति के  बाद चीन को उसका इलाका लौटा दिया, लेकिन दूसरी ताकतों ने कई दशकों तक एशिया में पैठ बनाए रखी. चीन के ज्यादातर  सीमा विवाद इसी औपनिवेशिक काल की देन हैं. 


भारत और चीन के बीच क्या सीमा विवाद है?


विवाद की सबसे बड़ी वजह चीन का मैकमोहन रेखा को न मानना है. भारत मैकमोहन रेखा को मान्यता देता है और इसे स्वीकार भी करता है. ब्रिटिश भारत सरकार में विदेश सचिव रहे सर हेनरी मैकमोहन ने  इस रेखा को खींचा था. इसे शिमला समझौता कहते हैं. सर हेनरी मैकमोहन ब्रिटेन, चीन और तिब्बत के बीच हुए शिमला सम्मेलन के मुख्य वार्ताकार भी थे. उस समय चीन के वार्ताकार इवान चेन थे. उनका कहना था कि उन्हें भारत के साथ तिब्बत की सीमा पर चर्चा करने के लिये अधिकृत नहीं किया गया था. 


यानी बकौल चीन, चीन की गैरहाजिरी में ब्रिटिश और तिब्बतियों के बीच मैकमोहन लाइन पर चर्चा हुई थी.  बाद में चीन ने इस समझौते पर आपत्ति जताई और इस समझौते को भारत और तिब्बत का एक द्विपक्षीय  समझौता करार दे दिया गया. उस समय तिब्बत के दक्षिण में मौजूद क्षेत्र को ब्रिटिश भारत का हिस्सा करार दे दिया गया. इससे अरुणाचल प्रदेश का तवांग क्षेत्र भारत के हिस्से में आ गया.  इस हिस्सें को ऐतिहासिक रूप से दक्षिण तिब्बत के नाम से जाना जाता था. 


1950 में तिब्बत भारत के नियत्रंण में आ गया. भारत चीन के जवाब में ये कहता है कि जब मैकमोहन रेखा खींची गई थी, तब तिब्बत पर चीन की संप्रभुता थी ही नहीं . साथ ही चीन ने अरुणाचल प्रदेश पर भी अपना दावा जताना शुरू कर दिया था.  तिहास की मानें तो तवांग के अहोम राजाओं और देब राजाओं के अरुणाचल की जनजातियों के साथ आर्थिक संबंध थे. वहीं ल्हासा के साथ तवांग मठ के आध्यात्मिक रिश्ते थे . चीन कूटनीतिक स्तर पर अरुणाचल प्रदेश पर दावा कर मामले को तूल देता रहता है. लेकिन ये भी साफ है कि अरुणाचल के रहने वाले लोगों ने कभी चीन को अपना नहीं माना है.  


मैकमोहन लाइन को समझिए 


शिमला समझौते के बाद  भारत के तवांग सहित पूर्वोत्तर सीमांत क्षेत्र और बाहरी तिब्बत के बीच सीमा मान ली गई. 1947 में भारत को आजादी मिली और पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना 1949 में अस्तित्व में आया. चीन शिमला समझौते को नहीं मानने लगा उसका कहना था कि तिब्बत पर चीन का अधिकार है और तिब्बत की सरकार के किसी प्रतिनिधि के हस्ताक्षर वाले समझौते को नहीं मानता है.


1938 में तत्कालीन  भारत की ब्रिटिश सरकार ने मैकमोहन लाइन दर्शाता हुआ मानचित्र अधिकारिक तौर पर पेश किया. जबकि पूर्वोत्तर सीमांत प्रांत 1954 में ही अस्तित्व में आया. जानकारों की मानें तो साल 1986 में भारतीय सेना ने अरुणाचल प्रदेश के तवांग के सुम्दोरोंग चू के पास चीनी सेना की बनाई स्थायी इमारतें देखीं. कुल मिलाकर कहें तो चीन अरुणाचल प्रदेश में मैकमोहन लाइन को नहीं मानता और अक्साई चिन पर भारत के सभी दावों को भी खारिज करता है.


अरुणाचल प्रदेश के तवांग पर भी  हैं चीन की निगाहें


चीन तवांग को तिब्बत का हिस्सा मानता है. चीन का कहना है कि तवांग और तिब्बत में बहुत हद तक सांस्कृतिक समानता है. जानकारों का ये मानना है कि चीन तवांग को अपने साथ लेकर तिब्बत की तरह ही बौद्ध स्थल बनाना चाहता है और वहां पर बी अपनी पकड़ कायम करना चाहता है. यहीं वजह है कि जब दलाई लामा ने तवांग की मॉनेस्ट्री का दौरा किया था तो चीन ने इसका खुले तौर पर विरोध किया था.  बता दें कि 1914 में ब्रिटिश भारत और तिब्बत के प्रतिनिधियों के बीच समझौता हुआ था तब अरुणाचल प्रदेश के उत्तरी हिस्से तवांग और दक्षिणी हिस्से को भारत का हिस्सा मान लिया गया था और चीन को इससे ऐतराज है.