नई दिल्ली: फरवरी के महीने में 29 तारिख का योग तो चार साल में एक बार आता है. मगर इस बार यह तारीख अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण संयोग लेकर आई है. आज पूरी दुनिया की नजरें कतर की राजधानी दोहा के पांच सितारा शेरेटन होटल पर होंगी जहां करीब दो दशक की लड़ाई के बाद अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौते की इबारत लिखी जाएगी. इस मौके पर भारत समेत 30 देशों के नेता और राजनयिक मौजूद होंगे.


राजनयिक सूत्रों के मुताबिक इस समझौते को लेकर आखिरी दौर की तैयारियां चल रही है. माना जा रहा है कि इस समझौते पर शनिवार शाम भारतीय समयानुसार करीब 4:30 बजे दोनों पक्षों के दस्तखत हो सकते हैं. हालांकि अभी यह साफ नहीं है कि इस पर अमेरिका और तालिबान की तरफ से कौन दस्तखत करेगा. तालिबान की मांग तो यही है कि अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो इसपर दस्तखत करें. मगर अमेरिका सरकार ने आधिकारिक रूप से पोम्पियो के शरीक होने को लेकर कुछ नहीं कहा है. सूत्रों के मुताबिक भारत की तरफ के कतर में राजदूत पी कुमारन इस समझौते के दौरान मौजूद रहेंगे.


इस समझौते से पहले दोनों पक्षो ने हिंसा में 7 दिनीं कटौती की योजना को अनिवार्य शर्त बनाया था. कुछ छोटी-मोती घटनाओं को छोड़कर यह 7 दिन का समय कमोबेश शांतिपूर्ण रहा है. इस शांतिकाल ने अमेरिका और तालिबान को समझौते की मेज़ पर बैठने का कारण तो दे दिया लेकिन अभी तक इस करार की कई शर्तों को लेकर सस्पेंस बरकरार है. लिहाजा यह मालूम होना बाकी है कि आखिर दोनों पक्ष किसकी और कौन सी बात मानते हैं.


ऐसे में समझौते के बाद ही साफ होगा कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी कब और कैसे होगी. तालिबान भले ही अमेरिकी सैनिकों की जल्द से जल्द और मुकम्मल वापसी की मांग करता आया हो. लेकिन फिलहाल अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान से केवल अपने कुछ ही सैनिकों को लौटाएगा. इन सैनिकों की वापसी में भी 14-16 महीने का समय लग सकता है तथा इसे चरणबद्ध तरीके से पूरा किया जाएगा. इसके अलावा इस्लामिक स्टेट के खिलाफ लड़ाई में तालिबान की अगुवाई और करीब 5000 तालिबानी लड़ाकों की रिहाई जैसे मामलों पर भी तस्वीर समझौते के बाद साफ होगी. इस समझौते के बाद ही अफगानिस्तान की सरकार औऱ तालिबान के बीच औपचारिक बातचीत की कवायद भी शुरु होगी.


जाहिर तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में हो रहे इस बड़े राजनीतिक बदलाव को लेकर भारत की भी बहुत से चिंताएं हैं. अपने विदेशी सहायता कार्यक्रम का दूसरा सबसे बड़ा हिस्सा अफ़ग़ानिस्तान में दे रहे भारत को जहां फिक्र विकास कार्यक्रमों की है वहीं उसके आगे सुरक्षा हितों के भी सवाल हैं. भारत यह बखूबी जानता है कि शांति समझौते के सहारे अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी का सीधा अर्थ होगा पिछले दरवाजे से पाकिस्तान की वापसी. ऐसे में उसे अपने रणनीतिक हितों की हिफाज़त का रास्ता भी निकालना होगा.


भारत की रणनीतिक चिंताओं के मद्देनजर ही सरकार ने अमेरिका तालिबान समझौते से ऐन पहले विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला को अफ़ग़ानिस्तान भेजने का फैसला किया. भारतीय विदेश सचिव ने 28 फरवरी की सुबह काबुल पहुंचने के बाद अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी, मुख्य कार्यकारी अधिकारी डॉ अब्दुल्ला अब्दुल्ला, उप- राष्ट्रपति निर्वाचित अमरुल्लाह सलेह, विदेशमंत्री हारून चखनसूरी, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हमदुल्ला मोहिब से मुलाकात की. विदेश मंत्रालय के मुताबिक डॉ श्रृंगला ने अशरफ घनी को पुनर्निर्वाचित होने पर प्रधानमंत्री की तरफ से बधाई का खत देने के साथ ही अफगानिस्तान शांति प्रयासों के लिए भारत के समर्थन का ऐलान किया. भारत


यह कहता आया है कि वो अफगान लोगों की अगुवाई में उनके समर्थन और नियंत्रण वाली शांति प्रक्रिया का समर्थक है.


भारतीय सेना में मिलिट्री इंटेलीजेंस के प्रमुख रहे लेफ्टिनेंट जनरल आरके साहनी ने एबीपी न्यूज से बातचीत में कहा कि भारत यह कतई नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान एक बार फिर नब्बे के दशक में लौट जाए. मगर, अमेरिका यदि अपनी फौजों को वापस ले जाना चाहता है तो यह उसका फैसला है. शांति समझौता एक प्रयोग है. यदि तालिबान हथियार का रास्ता छोड़कर, और संवैधानिक प्रक्रिया के तहत सत्ता में हिस्सेदार बनते हैं तो अच्छा ही है. हालांकि अभी यह तय नहीं है कि यह समझौता कब तक औऱ कैसे चलेगा.


अफगानिस्तान औऱ पाकिस्तान के पेचीदा मुद्दों की खासी समझ रखने वाले पूर्व राजनयिक दिलिप सिन्हा के मुताबिक अफगानिस्तान में तालिबान के साथ शांति समझौता दरअसल, अमेरिकी चुनावों के मद्देनजर लिया गया राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का फैसला है. भारत यह अच्छे से जानता है कि तालिबान की वापसी के साथ क्या खतरे हैं. ऐसे में उसकी कोशिश अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार और अफगान सुरक्षा बलों को शांति प्रयासों में समर्थन जारी रखने की होगी. अमेरिका ने शांति समझौते के लिए भले ही अफगानी तालिबान को आतंकी संगठन की परिभाषा से बाहर निकाल दिया हो. मगर यह भी सच है कि तहरीक-ए-तालिबान अफगानिस्तान के रिश्ते तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान से हैं जो एक आतंकी संगठन है.


ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आवभगत के बीच क्या भारत ने इस मुद्दे पर अपनी चिंताएं जताईं? इस बारे में पूछे जाने पर पीएम नरेंद्र मोदी और ट्रंप की बातचीत के बाद मीडिया से रूबरू हुआ विदेश सचिव ने कहा था कि दोनों नेताओं के बीच इस विषय पर भी कुछ देर बात हुई. भारत शांति प्रयासों का समर्थन करता है और अमन की इन कोशिशों में जोर इस बात का होना चाहिए कि हिंसा खत्म हो, आतंकी संगठनों का सफाया हो और बीते 18 सालों में आई बेहतरी को संजोया जाए.