Second Nakba: इजरायल और हमास के बीच जंग में शुक्रवार (13 अक्टूबर) का दिन अहम रहा है. इजरायली सेना ने गाजा पट्टी में रहने वाले फलस्तीनियों से कहा कि वे गाजा के उत्तरी हिस्से को छोड़कर दक्षिण की ओर चले जाएं. गाजा की आबादी 23 लाख है, जिसमें से 10 लाख से ज्यादा लोग उत्तरी गाजा में रहते हैं. हालांकि, इजरायली बमबारी के डर के बीच उत्तरी गाजा में रहने वाले फलस्तीनियों ने आनन-फानन में दक्षिण की ओर जाना शुरू कर दिया. 


फलस्तीनियों का दक्षिणी गाजा की तरफ कूच शुक्रवार से ही चल रहा है. कुछ लोगों ने इस घटना को दूसरे 'नकबा' का नाम देना शुरू कर दिया है. इन लोगों में फलस्तीनी अथॉरिटी के राष्ट्रपति महमूद अब्बास भी शामिल हैं. इजरायली सेना ने गाजा के उत्तरी हिस्से में जमीनी कार्रवाई करने के अलावा बमबारी भी की है. ऐसे में आइए आज जानते हैं कि आखिर नकबा क्या है, पहली बार ये कब हुआ और फलस्तीन-इजरायल के इतिहास में नकबा का क्या महत्व है. 


नकबा क्या है? 


दुनियाभर में मौजूद फलस्तीनियों के लिए 15 मई का दिन इतिहास के काले अध्याय की याद दिलाता है. इस दिन को नकबा कहा जाता है. अरबी भाषा में इसका मतलब 'विनाश' होता है. दरअसल, 14 मई 1948 को जब इजरायल का गठन हुआ, तो उसके अगले दिन 7.5 लाख फलस्तीनियों को बेघर भी होना पड़ा. इजरायली सेना की कार्रवाइयों से परेशान होकर फलस्तीनी अपना घर छोड़कर भाग गए. कुछ लोग खाली हाथ, तो कुछ घरों पर ताला लटका कर चले गए. 




घर छोड़कर जाते फलस्तीन के लोग


फलस्तीनी लोगों ने अपने घरों की चाबियों को संभाल कर रखा और हर साल 15 मई को वह इसे प्रतीक के रूप में दुनिया को दिखाते हैं. नकाब को याद करने के लिए 'नकबा के दिन' की शुरुआत फलस्तीन के पूर्व राष्ट्रपति यासिर अराफात ने 1998 में की थी. तब से लेकर अब तक हर साल दुनियाभर के फलस्तीनी लोग इसे मनाते हैं. अराफात ने जिस साल नकबा के दिन का ऐलान किया, उस साल इजरायल अपने गठन की 50वीं सालगिरह मना रहा था. 


कब हुआ पहला नकबा, क्या है फलस्तीन से इसका कनेक्शन? 


दरअसल, प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन ने 'बाल्फोर डिक्लेरेशन' के जरिए यहूदियों से वादा किया कि वह फलस्तीन को बांटकर उन्हें एक नया देश देगा. इससे फलस्तीनी लोग आगबबूला हो गए. 20वीं सदी में यूरोप में हो रहे अत्याचारों से भागकर पहले ही यहूदी फलस्तीन पहुंच रहे थे. अत्याचारों से परेशान यहूदियों की लंबे समय से मांग थी कि उन्हें अलग देश मिले. यूरोप से आने वाले यहूदियों ने यरुशलम और उसके आस-पास के इलाकों में बसना भी शुरू कर दिया था. 


यहूदी के आगमन के साथ ही फलस्तीनियों संग उनके टकराव की शुरुआत भी होने लगी. यहूदियों का कहना था कि यहां पर एक वक्त उनका पवित्र मंदिर 'द होली ऑफ द होलीज' मौजूद है. इसके आधार पर उन्होंने फलस्तीन को अपनी मातृभूमि बताना शुरू कर दिया. यरुशलम में मौजूद 'वॉल ऑफ द माउंट' को उसी मंदिर का हिस्सा कहा जाता है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तो फलस्तीन से आने वाले यहूदियों की तादाद और भी ज्यादा बढ़ने लगी. 




फलस्तीनियों का पलायन


साल 1945 तक आते-आते जब फलस्तीनी अरबों और यहूदियों के बीच टकराव बढ़ा, तो ये मामला ब्रिटेन ने संयुक्त राष्ट्र को सौंप दिया. संयुक्त राष्ट्र ने फैसला दिया कि फलस्तीन को दो मुल्कों में बांट दिया जाए. यहूदी तो इससे खुश थे, मगर फलस्तीनियों में नाराजगी थी. यूएन ने कहा कि यरुशलम पर उसका नियंत्रण रहेगा. 1948 के शुरुआती दिनों में यहूदियों ने फलस्तीन के कई गांवों को कब्जा लिया. फिर 1948 को मई की 14 तारीख को इजरायल के रूप में नया देश बना. 


इजरायल के बनने के साथ ही उसकी सेना ने फलस्तीनियों के विद्रोह को कुचलना शुरू कर दिया. अब दुनिया में नया देश बन चुका था और इस वजह से जो फलस्तीनी इजरायल वाले हिस्से में रहते थे, वे अगले दिन 15 मई को वहां से घर बार छोड़कर जाने लगे. बताया जाता है कि बंटवारे के बाद 7.5 लाख फलस्तीनी अपने घरों को छोड़कर चले गए. कुछ लोगों को उम्मीद थी कि हालात सामान्य होने पर वह लौटेंगे, मगर ऐसा नहीं हुआ. इसे ही पहला नकबा कहा जाता है.


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