भारत की विदेश नीति में रूस की काफी अहमियत रही है. भारत रूस से तेल के साथ-साथ हथियार आयात करता है. रूस ने भारत को 28 हजार करोड़ के हथियार बेचे हैं. लेकिन पिछले साल की शुरुआत में यूक्रेन युद्ध के बाद रूस पर अन्य देशों द्वारा कड़े प्रतिबंध लगाए गए. जिसके कारण भारत रूस को उन हथियारों के पैसे का भुगतान अब तक नहीं कर पा रहा था.


लेकिन आर्थिक प्रतिबंध का सामना कर रहे रूस को अपना बकाया राशि देने का भारत ने विकल्प ढूंढ़ लिया है. रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय रिफाइनरों ने दुबई में बैठे व्यापारियों के जरिए खरीदे गए रूस तेल के लिए अमेरिकी डॉलर के जगह दुबई की करेंसी दिरहम में भुगतान करना शुरू कर दिया है. आगे चलकर भारत इन हथियारों के कीमत का भुगतान भी दिरहम से ही करेगा.


पिछले साल मिले थे दोनों देशों के अधिकारी


पिछले साल दोनों देशों के डिफेंस और वित्त मंत्रालय के अधिकारियों ने एक बैठक कर इस मुद्दे पर चर्चा की थी और भुगतान के मामले को आरबीआई के सामने उठाने की बात भी कही थी. दोनों देशों ने उसी बैठक में फैसला किया था कि भारत रूस से खरीदे गए तेल और हथियार की कीमत का भुगतान डॉलर के बजाय किसी और करेंसी में करेगा. 


भारत ने क्यों चुनी दुबई की करेंसी 


दरअसल रूस यूक्रेन युद्ध के बाद जी-7 देशों और उनके सहयोगियों ने रूसी तेल पर प्राइस कैप लगाया गया है. इस प्रतिबंध के कारण कई तेल आयात देश मास्को से दूर रहें, जिसके परिणाम स्वरूप रूसी कच्चे तेल की हाजिर कीमतों में अन्य ग्रेड के मुकाबले डिस्काउंट दर्ज किया गया है. इसी का फायदा भारत को मिला और भारतीय रिफाइनर ने अच्छे डिस्काउंट पर तेल खरीदा.


ऐसे में अगर भारत ने रूस के साथ व्यापार करने और तेल के अलावा हथियार की कीमत चुकाने के लिए वैकल्पिक करेंसी का इस्तेमाल कर रहा है. वहीं दूसरी तरफ दुबई खुद को तटस्थ कहने वाला देश है. संयुक्त अरब अमीरात ने रूस पर किसी तरह का कोई प्रतिबंध नहीं लगाए हैं. ऐसे में भारत के लिए डॉलर के बजाय दिरहम में भुगतान करना आसान हो जाता है.


दिरहम में कैसे हो रहा है भुगतान 


रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत ने रूस को तेल की सप्लाई का भुगतान किया है. इसका तरीका ये है कि पहले तो बिल का कैलकुलेशन डॉलर में किया जाता है, फिर भारत उसका भुगतान दिरहम में किया जा रहा है. भारत यूएई का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार भी है. रूस की प्रमुख तेल उत्पादक रोसनेफ्ट, एवरेस्ट एनर्जी और कोरल एनर्जी सहित अन्य ट्रेडिंग फर्मों के जरिए भारत में कच्चा तेल भेज रही है. भारत अब चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा तेल खरीदार देश बन चुका है. 


डॉलर वैश्विक मुद्रा क्यों है


1944 से पहले ज्यादातर देश सोने को बेहतर मानक मानते थे और उसी से व्यापार किया करते थे. उन देशों की सरकारें वादा करती थीं कि वह उनकी मुद्रा को सोने की मांग के मूल्य के आधार पर तय करेंगे. साल 1944 में ब्रेटन वुड्स समझौते के बाद डॉलर की मजबूती की शुरुआत हुई थी. 


ब्रेटन वुड्स समझौते में न्यू हैम्पशर के ब्रेटन वुड्स में दुनिया के सभी विकसित देश एक साथ शामिल हुए और उन्होंने अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले सभी मुद्राओं की विनिमय दर को तय किया. उस वक्त अमरीका वह देश था जिसके पास दुनिया का सबसे अधिक सोने का भंडार था. ब्रेटन वुड्स समझौते ने अन्य देशों को भी सोने की जगह अपनी मुद्रा का डॉलर को समर्थन करने की अनुमति दी.


वहीं साल 1970 की शुरुआत में एक बार फिर कई देशों ने डॉलर के बदले सोने की मांग शुरू कर दी थी, क्योंकि उन्हें मुद्रा स्फीति से लड़ने की ज़रूरत थी. लेकिन तब तक डॉलर दुनिया की सबसे ख़ास सुरक्षित मुद्रा बन चुका था.