जर्मन डिफेंस कंपनी टीकेएमएस ने मझगांव डॉक्स लिमिटेड के साथ छह पनडुब्बियों के प्रोजेक्ट पर बिडिंग करने के लिए एमओयू पर हस्ताक्षर किए हैं. यह सौदा करीब 5.2 अरब डॉलर का हो सकता है.इस सौदे के साथ भारत के बहुप्रतीक्षित पनडुब्बी कार्यक्रम 'प्रोजेक्ट 75' में कुछ हलचल दिखने लगी है. इस प्रोजेक्ट के तहत कुल 24 सबमरीन यानी पनडुब्बियों का प्लान किया गया है. इनमें 18 परंपरागत होंगी और बाकी 6 न्यूक्लियर सबमरींस होंगी. 6 न्यूक्लियर सबमरींस के एमओयू के लिए जर्मनी ने हस्ताक्षर किए हैं.


जर्मन शिपबिल्डर थिसेनक्रुप मरीन सिस्टम्स (टीकेएमएस) और एमडीएल ने 7 जून को प्रोजेक्ट -75 के तहत इस समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं. इस समझौते के तहत टीकेएमएस पनडुब्बियों की इंजीनियरिंग और डिजाइन में योगदान और तकनीक से जुड़ी सलाह देगा.  एमडीएल पनडुब्बियों के निर्माण और वितरण की भी जिम्मेदारी उठाएगा. 


समझौते के सिलसिले में जर्मनी के रक्षा मंत्री बोरिस पिस्टोरियस 7 जून को मुंबई आए थे. उन्होंने पश्चिमी नौसेना कमान के मुख्यालय और मझगांव डॉक शिपबिल्डर्स लिमिटेड का दौरा किया. भारत के लिए जर्मनी के साथ ये समझौता द्विपक्षीय और वैश्विक दोनों संदर्भों में सबसे महत्वपूर्ण माना जा रहा है. इस समझौते के तहत विदेशी पनडुब्बी निर्माता कंपनी को एक भारतीय कंपनी के साथ पार्टनरशिप कर भारत में ही ये पनडुब्बियां बनानी होंगी.


इस पनडुब्बी डील की अहमियत समझिए


प्रोजेक्ट-75 की बुनियाद 1997 में पड़ी थी. उस दौरान रक्षा मंत्रालय ने 24 सबमरीन खरीदने की योजना को मंजूरी दी थी. इसी के तहत भारतीय नौसेना ने 2007 में ही साल 2027 तक अपनी पनडुब्बियों की संख्या बढ़ाकर 24 करने की योजना बनाई थी. प्रोजेक्ट 75 भारत में ‘मेक इन इंडिया’ की सभी बड़ी परियोजनाओं में से एक है. हिंद महासागर के भारत की प्रभुता बनाए रखने के लिए समुद्री ताकत में इजाफा करना जरूरी हो गया था. इस क्षेत्र में चीन और पाकिस्तान नजरें गड़ाए हैं. इसलिए प्रोजेक्ट-75 को मंजूर किया गया. 2028 तक 24 परंपरागत पनडुब्बियों का निर्माण किये जाने का लक्ष्य रखा गया है.


भारतीय नौसेना के पास इस समय कुल 16 पनडुब्बियां हैं. 15 पनडुब्बियां पारंपरिक हैं. एक पनडुब्बी परमाणु ऊर्जा पर आधारित है. इनमें से दस से ज़्यादा पनडुब्बियां 25 से 28 साल पुरानी हैं. ऐसे में इन पनडुब्बियों को या तो रिटायर करना पड़ेगा या उन्हें अपग्रेड करना पड़ेगा. इस कमी को पूरा करने के लिए ही इन छह पनडुब्बियों को भारत में बनाने की योजना बनाई गयी थी. ये पनडुब्बी एयर इंडिपेंडेंट प्रॉपल्शन सिस्टम से लैस होगी जो इन्हें लंबे समय तक पानी में रहने की क्षमता देगी. 




एयर इंडिपेंडेंट प्रॉपल्शन सिस्टम तकनीक की वजह से बाहर हुए दो देश 


आमतौर पर पारंपरिक पनडुब्बियों को हर 24 से 48 घंटे में ऑक्सीजन लेने के लिए पानी से बाहर आना पड़ता है. इस वजह से दुश्मन को पनडुब्बियों की मौजूदगी का पता लग सकता है. एयर इंडिपेंडेंट प्रॉपल्शन सिस्टम की बदौलत पनडुब्बियां लगभग सात दिन तक पानी के अंदर रह सकती हैं. यानी इंडिपेंडेंट प्रॉपल्शन सिस्टम एक ऐसी तकनीक है जो पारंपरिक पनडुब्बियों की पानी में रहने की समय सीमा को बहुत हद तक बढ़ा देती हैं. बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक इन पनडुब्बियों की मारक क्षमता बहुत ज्यादा है. ये पनडुब्बियां पानी के अंदर से जमीन पर दो सौ से तीन सौ किलोमीटर स्थित लक्ष्य को भेदने की क्षमता रखती है. टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक फ्रांस और रूस एयर इंडिपेंडेंट प्रॉपल्शन सिस्टम तकनीक की वजह से इस पनडुब्बी समझौते की रेस से बाहर हो गए हैं. 




पारंपरिक पनडुब्बी पर जोर क्यों?


24 सबमरीनों में से कुल 18 परंपरागत होंगी. इसलिए ये सवाल उठता है कि सेना पारंपरिक पनडुब्बियां क्यों हासिल करना चाहती है. इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक पारंपरिक पनडुब्बियां काफी तेज गति से प्रहार करती हैं. इस वजह से इन्हें हंटर किलर पनडुब्बियां भी कहा जाता है. अगर इनके सामने ऑक्सीजन लेने के लिए पानी से बाहर आने की मजबूरी न हो तो ये सात से दस दिन तक पानी में रह सकती हैं जिससे इनकी क्षमता बढ़ जाती है.” 


कब तक आएगी पहली पनडुब्बी


भारतीय नौसेना इस दिशा में तेजी से काम कर रहा है. सेना ने आरएफपी यानी प्रस्ताव के लिए अनुरोध का जवाब देने के लिए शॉर्टलिस्ट किए गए शिपयार्ड के लिए समय सीमा बढ़ाने के अलावा कुछ विनिर्देशों में छूट के लिए रक्षा मंत्रालय (एमओडी) से संपर्क किया है.आरएफपी जमा करने की नई समय सीमा 1 अगस्त है.


बता दें कि 20 जुलाई 2021 को भी रक्षा मंत्रालय ने छह पारंपरिक पनडुब्बियों के निर्माण के लिए शॉर्टलिस्ट किए गए रणनीतिक भागीदारों को आरपीएफ जारी किया था. 


रक्षा क्षेत्र के विशेषज्ञ राहुल बेदी ने बीबीसी को बताया, “डील की रफ्तार को देखते हुए लगभग 10 साल बाद यानी 2033 तक पहली पनडुब्बी भारत आ जाएगी. भारतीय नौसेना अपनी दीर्घकालिक योजना के तहत 2027 तक अपनी पारंपरिक पनडुब्बियों की संख्या को बढ़ाकर चौबीस तक ले जाना चाहती है , जो अभी 16 पनडुब्बियों तक सीमित हैं.




चीन और पाकिस्तान इस दिशा में कहां खड़े हैं? 


इंडिया टुडे में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक रक्षा मंत्रालय के एक वर्ग का मानना है '26 साल पुरानी सबमरीन डील के तहत पनडुब्बी-निर्माण योजना को पूरा करने के लिए कम से कम 24 पनडुब्बियों की जरूरत होगी. रक्षा मंत्रालय के मुताबिक पहली पनडुब्बी-निर्माण की योजना कारगिल युद्ध के महीनों बाद 1999 में कैबिनेट समिति द्वारा अनुमोदित किया गया था. 2012 तक 12 डीजल पनडुब्बियों और 2030 तक अन्य 12 पनडुब्बियों को शामिल करने की योजना थी. 


भारत के पड़ोसी देश अपने पनडुब्बी योजनाओं पर लगातार तेजी से काम कर रहे हैं. चीन के पास डीजल से चलने वाली कुल 65 पनडुब्बियां है. वहीं भारतीय नौसेना के पास डीजल से चलने वाली पनडुब्बियों का बेड़ा 1980 के दशक में 21 पनडुब्बियों से घटकर 16 पर रह गया है. इनमें से केवल आठ युद्ध के लिए तैयार हैं. ज्यादातर पनडुब्बियां 30 साल पुरानी हैं.


भारत के मुकाबले पाकिस्तान तेजी से पनडुब्बियों के निर्माण में आगे बढ़ रहा है. 2015 में पाकिस्तान ने चीन के साथ आठ युआन-क्लास (टाइप 039-ए) पारंपरिक एआईपी-सक्षम पनडुब्बियों के निर्माण के लिए समझौता किया. पनडुब्बी निर्माण की कुल लागत 500 करोड़ है.  इस समझौते के तहत  चार पनडुब्बियों का निर्माण चीन में किया जाएगा और शेष कराची के शिपयार्ड एंड इंजीनियरिंग वर्क्स लिमिटेड में बनाया जाएगा.