सिंगापुर: सिंगापुर के सेंटोसा में मंगलवार को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और उत्तर कोरिया के सुप्रीम लीडर किम जोंग के बीच हुई वार्ता ने बेशक दुनिया पर मंडराते परमाणु खतरे को कम किया. लेकिन अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच पहली बार हुई इस बातचीत ने एक गलत परंपरा पर भी वैधता की मुहर लगा दी कि चोरी से परमाणु तकनीक हासिल कर हथियार बनाइए और धमकी की नोक पर दुनिया के चौधरी अमेरिका को झुकाकर बातचीत की मेज पर ले आइए. इसने परमाणु तकनीक तस्करी के कुख्यात एक्यू खान नेटवर्क के कारनामों की ताकत भी जता दी.


दरअसल, कोरियाई प्रायद्वीप से परमाणु हथियारों को खत्म करने को लेकर किम-ट्रम्प वार्ता से निकले कथित वादों पर अब भी कई सवाल हैं. सिंगापुर से डोनाल्ड ट्रम्प और किम जोंग उन के घर पहुंचने के बाद प्योंगयोंग से प्रकाशित सरकारी मीडिया ने बातचीत को शांति के लिए चेयरमैन के संकल्प का नतीजा करार दिया. दक्षिण कोरिया के साथ युद्धाभ्यास बन्द करने के फैसले को बड़ी कामयाबी भी बताया. मगर उत्तर कोरिया का सरकारी मीडिया और किम जोंग उन का सत्तातंत्र परमाणु हथियारों को खत्म करने के वादे पर अब तक चुप्पी साधे हुए है. जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बात का एलान कर चुके हैं कि किम जोंग उन अंतरराष्ट्रीय निगरानी के साथ परमाणु हथियार खत्म करने को राजी हो गए हैं.


हालांकि, जानकारों के मुताबिक बातचीत की मेज पर हुए वादों को लेकर उत्तर कोरिया के इतिहास और परमाणु हथियार खत्म करने को लेकर चुप्पी किम-ट्रम्प वार्ता के भविष्य पर कई सवाल खड़े करती है. जिस दस्तावेज पर ट्रम्प और किम जोंग उन ने हस्ताक्षर किए उसमें संकल्प जताए गए हैं. बाद में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने बताया कि उत्तर कोरिया परमाणु निरस्तीकरण के लिए तैयार है और इसकी शुरुआत है वो अपनी मिसाइल इंजन टेस्ट फेसेलिटी को नष्ट करने से करेगा. बाद में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पेओ ने यह भी बताया कि इस करार के बाद अमेरिका उत्तर कोरिया को एक खास सुरक्षा कवर भी उपलब्ध कराएगा जो उसकी चिंताओं के मुताबिक है.


यह बातें इतिहास के दोहराव से नज़र आती हैं. करीब ढाई दशक पहले जब उत्तर कोरिया ने आईएईए की आपत्तियों के बाद परमाणु अप्रसार संधि से तीन महीने के लिए बाहर निकलने का एलान किया था तो न्यूयॉर्क में 11 जून 1993 को दोनों देशों की बैठक हुई थी. उस बैठक के बाद जारी साझा बयान में उत्तर कोरिया ने जहां कोरियाई प्रायद्वीप को नाभिकीय हथियार मुक्त बनाने का संकल्प जताया था वहीं अमेरिका ने प्योंगयोंग को किसी खतरे के खिलाफ सुरक्षा की छतरी मुहैया कराने का भरोसा दिया था. इसके बाद क्या हुआ यह सभी जानते हैं. उत्तर कोरिया ने न केवल परमाणु अप्रसार संधि को ठेंगा दिखाया बल्कि पाकिस्तान के कुख्यात नाभिकीय वैज्ञानिक एक्यू खान की मदद से एटम बम की तकनीक भी जुटाई. उत्तर कोरिया ने तमाम अंतरराष्ट्रीय चिंताओं, आलोचनाओं, चेतावनियों को धता बताते हुए 2006 से 2017 के बीच परमाणु परीक्षण किए और एटमी ताकत हासिल कर ली. खुद राष्ट्रपति ट्रम्प के शब्दों में उत्तर कोरिया के पास काफी बड़ी संख्या में नाभिकीय हथियार हैं.


अमेरिका और उत्तर कोरिया की वार्ता के बाद इस बात का अंदाज़ा लगाना सहज है कि जिन दो पन्नों के दस्तावेज पर राष्ट्रपति ट्रम्प और चेयरमैन किम जोंग उन ने दस्तखत किए हैं उसकी इबारतों में कई गलियारे बाकी हैं. उत्तर कोरिया ने कहीं भी परमाणु अप्रसार संधि में वापस लौटने का वादा नहीं किया है. न ही किसी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के दबाव में फिलहाल यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि उत्तर कोरिया किसी दूसरे मुल्क को यह परमाणु तकनीक नहीं बेचेगा. अपने व्यापक नरसंहार के बाद हथियार छोड़ने वाले लीबियाई शासक मुअम्मर गद्दाफी और रूस को सोवियत संघ के विघटन की विरासत में मिले नाभिकीय हथियार छोड़ने के बाद हुए घटनाक्रमों की नज़ीर भी किम जोंग उन को पूर्ण परमाणु निरस्तीकरण से रोकने का सबब बनेगी. उल्लेखनीय है कि गद्दाफी को अंतरराष्ट्रीय सैन्य कार्रवाई के बाद न केवल सत्ता से हटा दिया गया बल्कि उसका खात्मा भी हो गया. वहीं सोवियत संघ के विघटन के बाद कभी दुनिया में तीसरे स्थान पर परमाणु हथियार रखने वाले यूक्रेन ने सीआईएस मुल्कों के संकुल बनने के बाद अपने नाभिकीय हथियारों का जखीरा रूस को सौंप दिया था. आज यूक्रेन शक्तिशाली रूस के क्रीमिया हथिया लिए जाने की शिकायत लिए घूम रहा है.


अमेरिका और उत्तर कोरिया के बीच सिंगापुर में जताए गए वादे और इरादे द्विपक्षीय करारनामा ही हैं. इस पर संयुक्त राष्ट्र या किसी अन्य अन्तरराष्ट्रीय संस्था की न तो मुहर है और न ही निगरानी. खतरे के मुहाने पर बैठे जापान और दक्षिण कोरिया जैसे मुल्कों को अभी इस बात का इंतज़ार करना होगा कि आखिर उत्तर कोरिया अपने सिंगापुर सामझौते का कैसे और कितना सम्मान करता है.


हालांकि इस बीच उन कोशिशों को कमतर नहीं आंका जा सकता जिनकी बदौलत उत्तर कोरिया बातचीत की टेबल पर आया और समझौते पर दस्तखत करने पर राजी हुआ. लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि इन प्रयासों और वादों की लय में ही उत्तर कोरिया को फिर से परमाणु अप्रसार संधि की ज़द में लाने का प्रयास हो जिससे वो बाहर निकला था.