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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
Ateshgah Baku Fire Temple: भारत से हजारों किलोमीटर दूर अजरबैजान का एक मंदिर आतिशगाह जहां सदियों से जल रही है आग...
अजरबैजान (Azerbaijan) 98 फीसदी मुस्लिम आबादी वाला देश है,लेकिन आपको हैरानी होगी कि इस देश की राजधानी और सबसे बड़े शहर बाकू में भारतीय देवताओं वाला एक मंदिर है. यहां एक जगह है सुरखानी जहां टेंपल ऑफ फायर आतिशगाह है.सोवियत संघ के बड़े पैमाने पर गैस निकालने से भंडार खाली होने तक 1969 तक ज्वाला प्राकृतिक तौर पर जलती रहती थी. अब यहां जलने वाली इस आग के लिए ईंधन बाकू से आने वाली गैस पाइपलाइन से दिया जाता है. (फोटो-Trails of Eurasia TV)
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View In Appभारत की विदेश मंत्री रहने के दौरान साल 2018 में स्वर्गीय सुषमा स्वराज ने अजरबैजान का दौरा किया था. इस 3 दिन के दौरे में वो बाकू में 'अग्नि के मंदिर' आतिशगाह भी गई थीं. इस मंदिर में हिंदू, सिख और पारसी पूजा किया करते थे. (फोटो- MEA India)
आतिशगाह को 1975 में संग्राहलय बनाया गया. अजरबैजान के राष्ट्रपति ने 2007 में इसके ऐतिहासिक आर्किटेक्चरल रिजर्व में होने का ऐलान किया. मतलब ये संरक्षित है. इस मंदिर में पूजा नहीं होती क्योंकि यहां हिंदू आबादी न के बराबर है, लेकिन लगातार जलती आग की वजह से ये दुनिया भर के सैलानियों के बीच खासा मशहूर है. इसे देखने हर साल 1500 सैलानी आते हैं.(फोटो-Trails of Eurasia TV)
मंदिर की इमारत किले की तर्ज पर बनी है, जबकि इसकी छत हिंदू मंदिर सरीखी है. इसकी छत पर दुर्गा का त्रिशूल है. मंदिर के अंदर एक अग्निकुंड है, जिसमें लगातार आग जली रहती है.अजरबैजान से भारत की दूरी 3,682 किलोमीटर है. यह हवाई सफर की दूरी 2,288 मील के बराबर है. इसके बाद भी ये हिंदू मंदिर की वजह से भारत से जुड़ा हुआ है.(फोटो-Trails of Eurasia TV)
बाकू के 1745-46 के इस आतिशगाह में शिलालेख की पहली पंक्ति भगवान गणेश की वंदना करती है और दूसरी पवित्र अग्नि यानी ज्वाला की.यहां 14 संस्कृत, दो पंजाबी और एक फारसी के शिलालेख हैं. यहां के इकलौते फ़ारसी शिलालेख में व्याकरण संबंधी त्रुटियां हैं.
मंदिर आज जिस रूप में खड़ा है वो हिंदूओं की वजह से है. 17वीं सदी के आखिर या 18वीं सदी की शुरुआत में हिंदुओं के आने के बाद उसका इस तरह से बनना शुरू हुआ. यूरोपीय यात्रियों और इतिहासकारों ने लगभग 1683 से 1880 तक हिंदुओं, सिखों और 'पारसियों' (पारसी) की मौजूदी यहां अपने दस्तावेजों में दर्ज की है.
आतिशगाह में 14 संस्कृत शिलालेखों में से दो में से एक में भगवान गणेश और ज्वाला जी का उल्लेख है जबकि दूसरे में भगवान शिव का आह्वान है. भगवान शिव का उल्लेख करने वाले शिलालेख में सूर्य और स्वस्तिक के रूपांकन हैं. भारत के हिमाचल के कांगड़ा में ज्वाला देवी का मंदिर है.
अतिशगाह पर कई छेद थे जिनसे प्राकृतिक आग निकलती थी. फारसी में 'आतिश' शब्द का अर्थ आग और 'गाह' का अर्थ बिस्तर होता है. अतिशगाह के नीचे कभी प्राकृतिक गैस का क्षेत्र था, जो प्राकृतिक आग निकलने की वजह था.
इस पंचभुजा आकार के मंदिर में बाहरी दीवारों के साथ 26 कमरे बने हुए हैं जिनमें कभी उपासक रहा करते थे. हर एक कमरा अलग-अलग धर्मों और उनके धार्मिक विश्वास को दिखाता है. 1883 बाद इसका इस्तेमाल तब बंद हो गया जब इस मंदिर के नजदीक ज़मीन से पेट्रोल और प्राकृतिक गैस निकालने का काम शुरू किया गया.
कई इतिहासकार मानते है कि ये पवित्र स्थल रहा है. 7 वीं शताब्दी के अर्मेनियाई भूगोलवेत्ता अनन्या शिराकाशी ने अपनी किताब अश्खरत्सुयट्स (Ashkharatsuyts) में इसके बारे में लिखा है.आतिशगाह को 1998 में यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थल का दर्जा दिया है.18वीं शताब्दी में हिंदू, सिख और पारसी बड़ी तादाद में इस इलाके में आने लगे थे. हिंदू कारोबार की वजह से यहां पहुंचे. दरअसल ये इलाका मध्य एशिया के जरिए भारतीय उपमहाद्वीप को पश्चिम से जोड़ने वाले कई प्रमुख व्यापार मार्गों में से एक है.
पारसी लोग यहां पहले उपासक थे. ये लोग आग की पूजा करते थे. इस्लामी आक्रमण से पहले 7 वीं शताब्दी में यह इलाका सशैनियन राजवंश (Sasanian Dynasty) के फ़ारसी साम्राज्य का एक हिस्सा था. माना जाता है कि अर्मेनियाई विद्वानों का मानना है कि सात पवित्र अग्नि छेदों वाले मंदिर को शाह अरदाशिर (Shah Ardashir) ने 227-241 में बनाया था.
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