Tribal Festival: आदिवासी समाज की दीवाली! डेढ़ महीने तक चलने वाले 'दियारी त्यौहार' की परंपराएं सुन हो जाएंगे हैरान
छत्तीसगढ़ के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र बस्तर में आदिवासी सैकड़ों सालों से अपनी पुरानी परंपरा, रीति-रिवाजों को निभाते आ रहे हैं. आदिवासी समाज की रीति रिवाज से लेकर उनका रहन-सहन, वेशभूषा और संस्कृति अपने आप में अनोखी होती है.
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View In Appआदिवासियों के द्वारा गांव-गांव में मनाई जाने वाली मंडई मेले और त्यौहार भी खास तरह की होती है. बस्तर में आदिवासी एक ऐसा ही त्यौहार मनाते हैं, जो लगभग डेढ़ महीने तक चलता है और हर गांव में अलग-अलग दिनों में मनाया जाता है. खास बात ये कि धान कटाई से शुरू होने वाला आदिवासियों की यह त्यौहार जनवरी के आखिरी दिनों तक चलता है.
लगभग डेढ़ महीने से अधिक समय तक मनाया जाने वाला त्यौहार पूरे देश में शायद ही कहीं मनाया जाता हो. बस्तर के आदिवासी इस त्यौहार को दियारी त्यौहार कहते हैं. इस त्यौहार में सैकड़ों साल पुरानी परंपराओं को आज भी यहां के आदिवासियों द्वारा बखूबी निभाया जाता है.
दरअसल, छत्तीसगढ़ के बस्तर में धान कटाई से इस त्यौहार की शुरुआत होती है. जब धान पूरी तरह से पककर तैयार हो जाता है तो इसकी खुशी में आदिवासी और यहां के रहने वाले किसान दियारी का त्यौहार मनाते हैं. वर्तमान में भी बस्तर के ग्रामीण अंचलों में दियारी त्यौहार की रौनक देखने को मिल रही है.
बताया जाता है कि नये धान की फसल घर पहुंचने के बाद परंपरा अनुसार अलग-अलग गांवों में इस त्यौहार को मनाया जाता है. ग्रामीण अपने गांव की कुल देवी और घर की कुल देवी की पूजा अर्चना कर, पूरे गांव और समाज की खुशहाली की कामना करते हैं. वही कोठार में बांस के सूपे में धान रखकर पूजा की जाती है. इस दौरान लोग अपने पालतू मवेशियों को नहला धुलाकर खिचड़ी खिलाते हैं. इसी तरह ये पूजा की परंपरा करीब डेढ़ महीने तक चलता रहता है.
सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष और जानकर प्रकाश ठाकुर ने बताया कि बस्तर में महालक्ष्मी पूजा को स्थानीय आदिवासी राजा दियारी कहते हैं. बस्तर के ग्रामीण अंचलो में आदिवासियों के अलावा ट्राइबल में ही कई अन्य जाति के लोग भी धान कटाई के बाद दियारी त्यौहार को मनाते हैं. उन्होंने बताया कि गांव के सिरहा, पुजारी और पटेल की सहमति पर सप्ताह में किसी एक दिन इस त्यौहार को मनाने का दिन तय किया जाता है और उसके बाद पूरे गांव में दियारी का त्यौहार मनाया जाता है.
दियारी त्यौहार के पहले दिन ग्रामीण गांव के प्रमुख गुड़ी और कुलदेवी मंदिर में इक्कठे होते हैं और वहां पूजा-अर्चना कर खुशहाली की कामना करते हैं. इस त्यौहार के दूसरे दिन सुबह महिलाएं अपने घर को सजाती हैं और अपने पालतू मवेशियों को नहला धुलाकर चावल के आटे के घोल से गाय बैलो के पैरों के निशान बनाती हैं. इस पर्व के तीसरे दिन अपनी सहूलियत के अनुसार तय किया जाता है कि इस दिन को बासी त्यौहार के रूप में मनाया जाए.
बताया जाता है कि दियारी त्यौहार के पहले दिन किसी कारण से अगर कुछ मेहमान सामूहिक भोजन में शामिल नहीं हो पाते हैं, तो उन लोगों को एक बार फिर भोजन कराया जाता है. दियारी के पहले दिन जो भी पकवान बनते हैं, उसे फिर से बनाए जाते हैं और आने वाले लोगों को खिलाया जाता है. दियारी त्यौहार के तीसरे दिन मनाए जाने वाले दिन को बासी तिहार कहा जाता है. जानकार हेमंत कश्यप बताते हैं कि दियारी त्यौहार पूर्ण रूप से पशुधन पर आधारित त्यौहार है. जिसे बस्तर के आदिवासियों की दीपावली भी कहा जा सकता है.
पुरुष धान की बालियों से सेला बनाते हैं और पशुओं को नहलाते धुलाते हैं. घरों पर ग्रामीण महिलाएं नये मिट्टी के बर्तन में पांच प्रकार के कंद और नए चावल की खिचड़ी तैयार करती हैं. पुरुष पूजा अर्चना करके गाय बैलों को खिचड़ी खिलाते हैं. इस दिन गायों के गले में मोर पंख, पलाश की जड़ और ऊन से तैयार सौहई पहनाया जाता है. छत्तीसगढ़ में केवल बस्तर में ही दियारी त्यौहार का जश्न देखने को मिलता है. इस मौके पर गांव-गांव में धूमधाम से इस त्यौहार को आदिवासी समुदाय द्वारा मनाया जाता है.
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