Iron Bridge: देश के सबसे व्यस्त रेल ट्रैफिक रूट को संभालता है ये ‘बाहुबली’…कहानी दिल्ली के लोहा पुल की
Delhi: देश की राजधानी दिल्ली (Delhi) ना सिर्फ अपने अंदर एक स्वर्णिम इतिहास समेटे हुए हैं बल्कि अलग-अलग दौर में अलग-अलग भूमिका निभाती रही है. और दिल्ली की भूमिका हमेशा ही केंद्र में रही है. शासन किसी भी शासक का रहा हो, मुगल हों, अंग्रेज हो या फिर इतिहास का कोई भी शासक हर किसी ने दिल्ली की अहमियत को समझा. आज हम बात कर रहे हैं दिल्ली को जोड़ने वाले और एक वक्त में जीवनरेखा कहे जाने वाले लोहे के उस पुल की जो डेढ़ सौ साल बाद भी बड़ी शान से ना सिर्फ खड़ा है बल्कि अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है. बात हो रही है यमुना (Yamuna) पर लालकिले (Red Fort) के पीछे बने लोहे के पुल की.
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View In Appयमुना किनारे बसी दिल्ली को एक वक्त में लोग नाव के सहारे एंट्री करते थे. काफी बाद में शासकों ने जरूरत समझी और लाल किले के पीछे सलीमगढ़ किले के पास यमुना पर लोहे का पुल तैयार किया गया. हालांकि इससे पहले पीपे का एक पुल इस्तेमाल किया जाता था लेकिन 1857 की क्रांति में विद्रोहियों ने इसी पुल का इस्तेमाल कर दिल्ली में प्रवेश किया था.
विद्रोहियों को रोकने के लिए अंग्रेजी सेना ने इस पुल को बर्बाद कर दिया था. इतिहास में दर्ज है कि मुगल बादशाह जहांगीर ने ये पीपे का पुल तैयार कराया था जिसे बाद में बहादुर शाह जफर के शासन के दौरान कई बार मरम्मत कर रखरखाव किया गया था.
बाद में अंग्रेज सरकार ने इसी जगह पर नया लोहे का पुल तैयार करने का काम शुरू किया. साल 1866 में ब्रिज नंबर 249 पूरी तरह से तैयार हुआ और दिल्ली में प्रवेश के लिए एक अहम रास्ते के तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा.
इस पुल की लंबाई 2640 फीट थी और हर 202.5 फीट की दूरी के हिसाब से 12 स्पान यानि एक पिलर से दूसरे पिलर के बीच की दूरी थी. इस पुल का निर्माण साल 1863 में शुरू हुआ था. इस पुल के निर्माण से पहले तक दिल्ली पहुंचने वाले लोग नावों के सहारे दिल्ली में प्रवेश करते थे.
ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी ने जब इस पुल का निर्माण कार्य पूरा किया तब तक करीब 13 करोड़ रुपये की लागत आ चुकी थी. शुरुआत में इस पुल पर सिंगल रेलवे लाइन थी. बाद में इसे बदलकर साल 1913 में डबल लाइन कर दिया गया. इस पुल की मजबूती का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई विनाशकारी बाढ़ और भूकंपों को झेल चुका ये पुल करीब डेढ़ सौ साल बाद आज भी मजबूती से खड़ा है और इस्तेमाल किया जा रहा है.
हालांकि इस पुल के विकल्प के तौर पर साल 1997 में इसी के बगल में एक नए पुल के निर्माण का प्रस्ताव पास हुआ था. लेकिन तमाम अड़चनों के बीच अभी तक ये पुल पूरा नहीं हो सका है.
जिस पुल का निर्माण चार साल के अंदर होना था वो दो दशक बीतने के बाद भी अधूरा पड़ा है. वहीं पुराना लोहे का पुल हर रोज 200 से ज्यादा ट्रेनों का ट्रैफिक झेलकर भी मजबूती से काम कर रहा है. रेलवे इंजीनियरिंग के इस अद्भुत नमूने की दुनियाभर में तारीफ हो चुकी है.
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