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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)
Photos: चौसठ योगिनी मंदिर: 64 योगिनी के बीच में विराजमान है शिव की प्रतिमा, जानें क्यों कहते थे इसे 'तांत्रिक यूनिवर्सिटी'
मुगलों के आने से पहले मध्य भारत (आज का मध्य प्रदेश) में हिन्दू राजाओं का शासन था. इसी दौरान उन्होंने धर्म, शास्त्र,तंत्र-मंत्र से जुड़े स्मारकों में स्थापत्य कला का जो नायाब नमूना पेश किया, उसकी मिसाल आज भी कायम है. जबलपुर में कलचुरी राजाओं के बनाये मठ-मंदिर आज भी उस गौरवशाली इतिहास की दास्तां बयां करते है.
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View In Appजबलपुर शहर से 20 किमी दूर अपनी दूधिया संगमरमर चट्टानों के लिए विश्व प्रसिद्ध भेडाघाट पर्यटन स्थल में चौंसठ योगिनी का मंदिर उसी इतिहास का साक्षी है. हालांकि मुगल आक्रांता औरंगजेब ने यहां की सभी योगिनियों को खंडित कर दिया था लेकिन आज भी इस मंदिर का ढांचा बेहद मजबूत है और बड़ी संख्या में पर्यटक इसे देखने आते हैं. एएसआई ने इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया है.
इतिहासकार प्रोफेसर आनंद राणा बताते हैं कि मध्यकाल में जबलपुर में तंत्र साधना का देश का उत्कृष्ट विश्वविद्यालय था. यहां तंत्र शास्त्र के आधार पर तंत्र विद्या भी सिखाई जाती थी, जिसे लोग गोलकी मठ के नाम से जानते थे, लेकिन मुगलों के आक्रमण के बाद यह मठ धीरे-धीरे बंद हो गया. आज भी जब तंत्र साधना की बात होती है तो गोलकी मठ को विशेष तौर पर याद किया जाता है. यह आजकल भेड़ाघाट के चौसठ योगिनी मंदिर के नाम से जाना जाता है. यह एक ऐसा केंद्र बिंदु है जहां मारे मत देखने को मिलते हैं लेकिन शैत्व मत सबसे पुराना है क्योंकि त्रिपुरेश्वर महादेव की स्थापना के साथ ही यहां शैव मत की परंपरा शुरू हो गई थी. हालांकि शैव मत दक्षिण भारत में ज्यादा प्रचलित था लेकिन यहां अन्य मतों का भी समावेश रहा.
जबलपुर के भेडाघाट की प्रसिद्ध संगमरमर चट्टानों के पास करीब ढाई सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित इस मंदिर में देवी दुर्गा की 64 अनुषंगिकों (योगनियों) की प्रतिमा है. इस मंदिर की विशेषता इसके बीच में स्थापित भागवान शिव की प्रतिमा है, जो कि देवियों की प्रतिमा से घिरा हुआ है. भगवान शिव यहां अपने वाहन वृषभ यानी नंदी पर माता पार्वती के साथ सवार हैं. यह उनकी पूरे देश की अनोखी शिव प्रतिमा है. इसे देखने के लिए देश-विदेश से पर्यटक जबलपुर आते हैं.
कहते है कि इस मंदिर का निर्माण सन् 1000 के आसपास कलीचुरी वंश ने करवाया था. मंदिर के सैनटोरियम में गोंड रानी दुर्गावती की मंदिर की यात्रा से संबंधित एक शिलालेख भी देखा जा सकता है. मान्यता है कि यहां एक सुरंग भी है जो चौंसठ योगिनी मंदिर को गोंड रानी दुर्गावती के महल से जोड़ती है. यह मंदिर एक विशाल परिसर में फैला हुआ है और इसके हर एक कोने से भव्यता झलकती है.
चौसठ योगिनी मंदिर वृत्ताकार यानी गोल आकार का है. बीच में एक अद्भुत नक्कासीदार मंदिर है. इस मंदिर के गर्भगृह में शिव-पार्वती की प्रतिमा है. इतिहासविद् बताते हैं यह प्रतिमा दुर्लभ है. वृषभ यानी नंदी पर सवार श्रृंगारयुक्त ऐसी प्रतिमा देश में और किसी जगह पर नहीं है. इतिहासकार डॉ. आनंद राणा के अनुसार यह मंदिर दसवीं शताब्दि का है. मंदिर त्रिभुजाकार 81 कोणों पर आधारित है, जिसके प्रत्येक कोण पर योगिनी की स्थापना की गई थी. 12 वीं शताब्दी में गुजरात की रानी गोसलदेवी ने यहां गौरीशंकर मंदिर का निर्माण कराया था.
बताते हैं कि चालुक्य राजकुमारी नोहला देवी जब यहां आईं तो युवराज देव प्रथम और नोहला देवी ने यहां पर गोलकी मठ की स्थापना की. कहते हैं कि यह एक विश्वविद्यालय था, जिसकी शाखाएं दक्षिण भारत में मद्रास के कुर्नूल, सुंदर, कड़प्पा तक थीं. नोहलेश्वर, विलहरी, बघेलखंड से लेकर केरल में भी इनका अध्ययन केंद्र था. शहर के त्रिपुरी, बटुक भैरो भी अध्ययन केंद्र थे. दरअसल,गोलकी मठ विश्वविद्यालय था,जिसमें 64 योगनियों की स्थापना की गई थी.बताते है कि आदि काल से ही राजा युद्ध, सुख-समृद्धि सहित अन्य कामनाओं के लिए 54 योगनियों की स्थापना कराते थे.औरंगजेब के हमले के बाद वर्तमान में गोलकी मठ में अंग-भंग वाली चौसठ योगिनी बची हैं.
जबलपुर के इतिहासकार प्रोफेसर आनंद राणा बताते हैं कि दुर्वासा ऋषि ने यहां साधना की शुरुआत की थी. तकरीबन एक हजार साल पहले कलचुरी राजवंश में जब नोहला देवी विवाह के बाद यहां आईं तो उन्होंने युवराज देव के साथ शैव मत के लिए विशेष तौर पर गोलकी मठ का निर्माण कराया. इनके शासन काल में शैव के साथ ही वैष्णव, बौद्ध और जैन परंपरा की मूर्तियों का भी निर्माण कराया गया. देखा जाए तो कलचुरी शासक एक तरह से धर्मनिरपेक्ष भी थे, जो सभी मतों का सम्मान करते थे.
आनंद राणा बताते हैं कि, राजकुमारी नोहला दक्षिण भारत से आई थी, जहां शैव मत का विशेष महत्व है. यहां आने के बाद उन्होंने कई शिव मंदिरों का भी निर्माण कराया. उन्होंने अपने शासनकाल में जबलपुर के निकट भेडाघाट में एक पहाड़ी पर देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय का निर्माण कराया, जो तंत्र साधना के लिए प्रसिद्ध था. इसके अध्ययन केंद्र देशभर में थे. कालांतर में मुगल आक्रांता औरंगजेब ने गोलकी मठ में चौसठ योगनी की प्रतिमाओं को भी खंडित कर दिया, जिसके बाद यह केंद्र बंद हो गया.
हालांकि इस मंदिर को लेकर कई मान्यताएं और किंवदन्तियां भी हैं. कहते हैं कि जब एक बार भगवान शिव और माता पार्वती भ्रमण के लिए निकले तो उन्होंने भेड़ाघाट के निकट एक ऊंची पहाड़ी पर विश्राम करने का निर्णय किया. इस स्थान पर सुवर्ण नाम के ऋषि तपस्या कर रहे थे जो भगवान शिव को देखकर प्रसन्न हो गए और उनसे प्रार्थना की कि जब तक वो नर्मदा पूजन कर वापस न लौटें तब तक भगवान शिव उसी पहाड़ी पर विराजमान रहें. नर्मदा पूजन करते समय ऋषि सुवर्ण ने विचार किया कि यदि भगवान हमेशा के लिए यहां विराजमान हो जाएं तो इस स्थान का कल्याण हो और इसी के चलते ऋषि सुवर्ण ने नर्मदा में समाधि ले ली.
इसके बाद से कहा जाता है कि आज भी उस पहाड़ी पर भगवान शिव की कृपा भक्तों को प्राप्त होती है. माना जाता है कि नर्मदा को भगवान शिव ने अपना मार्ग बदलने का आदेश दिया था ताकि मंदिर पहुंचने के लिए भक्तों को कठिनाई का सामना न करना पड़े. इसके बाद संगमरमर की कठोरतम चट्टानें मक्खन की तरह मुलायम हो गईं थीं जिससे नर्मदा को अपना मार्ग बदलने में किसी भी तरह की कठिनाई नहीं हुई.
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