Holi 2024: इंदौर में 20 तोपों की सलामी और फूलों की रस से खेली जाती है होली, दिलचस्प है इतिहास
इंदौर की होली हमेशा लोगों में चर्चा का विषय रही है. आज हम इंदौर की उसी रंग पंचमी पर करेंगे, जिसे पूरी दुनिया में अपनी विशेषता के जाना जाता है, लेकिन इसका इतिहास कई सौ साल पुराना है. रंग पंचमी आने वाली है और होलकर रियासत की रंग पंचमी विशेषता और समय के साथ-साथ इसमें क्या-क्या बदलाव आए? इसकी जानकारी दी जाने माने इतिहासकार जफर अंसारी ने. साल 1920 में महाराज होलकर द्वारा एक पुस्तक का बनवाई गई जिसे नाम दिया गया उत्सव दर्शन. उत्सव दर्शन वह किताब थी, जिसके अंदर रियासत के तमाम तीज त्योहारों को शब्दों की माला में पिरोया गया था. खास तौर पर होली, रंग पंचमी और गैर का जिक्र उस पुस्तक में मिलता है. हालांकि बहुत सारे तीज और त्योहार रियासत के दौर में लुप्त हो गए या खत्म हो गए.
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View In Appइंदौर में होली का फाग महोत्सव 15 दिन तक बड़ी शान ओ शौकत से मनाया जाता था. जैसे ही होली का डंडा रियासत में लगता था, फॉरेस्ट डिपार्टमेंट को हिदायत दी जाती थी कि वह प्राकृतिक फूल जैसे टेसू के फूल और तमाम फूल को इकट्ठा कर प्राकृतिक कलर का निर्माण करें. इसके साथ सैकड़ों लोग इस काम में लग जाते थे.महीने भर के परिश्रम के बाद एक बहुत बड़ी तादाद में नेचुरल कलर तैयार किया जाता था. रियासत के दौर में होली की तैयारी दोपहर 3 बजे तक कर ली जाती थी और रंग रोगन और साज सज्जा होती थी. इस इलाके में होली की तैयारी के लिए ढाले परिवार के यहां से होली की अग्नि आती थी, जिसे महाराज होलकर हस्त स्पर्श करते थे और फिर वह प्रज्वलित होती थी. उसके बाद होलकर रियासत का राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत होता था. होलकर आर्मी के प्लाटून के 20 घुड़सवार पांच पांच राउंड फायर करते थे और किले से तोप चलने की एक बड़ी जोरदार आवाज आती थी. ये तोप 5 बार दागी जाती थी. जिससे पूरे शहर को यह मालूम होता था कि होली का फाग उत्सव राजबाड़ा से 15 दिन के लिए शुरू हो चुका है. इसके बाद महाराज होलकर होली की परिक्रमा कर राजबाड़े में दाखिल होते थे.
होलकर वंश में युद्ध में शहीद सैनिकों की याद में होली के दूसरे दिन एक वीर परंपरा की रिवायत थी. इस रिवायत के तहत जो वीर थे, वह हाथ में ढाल और तलवार लिए हुए राजबाड़े के सामने से गाजे बाजे के साथ निकलते थे. होलकर रियासत के राज पुरोहित उनकी पूजा करते .थे उसके बाद महाराज होलकर जवाहर खाने से उनको आभूषण जैसे चांदी की छतरी, चांदी की चवर दी जाती थी. इसके बाद वह पूजा के लिए प्राचीन वनखंडी मारुति मंदिर राजबाडा के सामने भगवान हनुमान के मंदिर आते थे और वहां पूजा करने के पश्चात वापस राजवाड़े की ओर लौटते थे. जहां पर उन्हें सेवइयां और खीर खिलाने की रस्म थी.
मुख्य कार्यक्रम जो था वह ओल्ड पैलेस और न्यू पैलेस यानी जूना राजबाला और नए राज बड़े के बीच हुआ करता था. होलकर के सैनिकों का आयोजन होता था.जिसमें भारी तादाद में लोग शामिल होते थे. जिसे महाराज होलकर की दादी मार्तंड मल्हारी के सामने लगाई जाती थी, जहां से वह कुश्ती का आनंद लिया करती थी और इसमें तमाम जीतने वालों को बड़े-बड़े इनाम दिए जाते थे. रियासत की तरफ से सैनिकों और इसमें भाग लेने वाले तमाम सैनिकों के लिए भांग का इंतजाम किया जाता था.
चांदी और सोने की रंग-बिरंगे पिचकरियां भरकर महाराज को दी जाती थी. जिससे वह दरबारियों और फौजियों के साथ होली का रंग खेला करते थे. पंचमी के दिन का मुख्य समारोह राजवाडा में होता था. आम जनता पर पानी का छिड़काव होता था. पानी का छिड़काव खुशबूदार होता था, क्योंकि उसमें कई जड़ी बूटियों का मिश्रण होता था. रियासत के टाइम में यही गैर की शुरुआत मानी जाती है.
भारत की आजादी के साथ रियासत का दौर खत्म हुआ. ठीक उसी तरह से 1950 में एक नई शुरुआत हुई और वह शुरुआत इंदौर की गैर जाने रंग पंचमी पर निकलने वाली गैरों से हुई. टोरी कॉर्नर इंदौर का मशहूर इलाका था, जहां से श्रमिक नेता और मिल मजदूरों ने मिलकर इसकी शुरुआत की. इस मौके पर यह बताना बेहद जरूरी है कि टोरी अंग्रेज हुकूमत की एक पॉलीटिकल पार्टी का नाम था. ये इंग्लैंड के अंदर एक लेबर पार्टी हुआ करती थी. जिसको संक्षिप्त में टोरी कहते थे और इंदौर के श्रमिक नेता उससे बहुत प्रभावित थे. इसके बाद यहां के मिल में काम करने वाले लोगों ने इस चौराहे का नाम यानि कॉर्नर का नाम टोरी कॉर्नर कहना शुरू कर दिया.
साल 1950 के दशक में इस स्टोरी कॉर्नर पर बड़े-बड़े कड़ाव साबुन फैक्ट्री से मंगाए जाते थे और उनमें केसरिया रंग डाला जाता था. इसी रंग को लोगों पर डाला जाता था और लोगों को कड़ाव में डाला जाता था. यह शुरुआत थी इंदौर की नई गैर की और उस जमाने के मशहूर बाबूलाल गिरी, रंगनाथ कार्णिक पहलवान, बिंडी पहलवान आदि ने मिलकर इसकी शुरुआत की. शुरुआती दौर में सिर्फ दो बैलगाड़ियों पर यह रंगारंग गैर टोरी कॉर्नर से राजवाड़ा लाई गई. बाद में बैलगाड़ियों की तादाद बढ़ती गई. इसमें मालवा निमाड़ के आदिवासियों की टुकड़ी शामिल होने लगी और इसका आज जो हम रूप देखते हैं.वह एक भव्य रूप हमारे सामने दिखाई देता है. इंदौर की इस पुरानी रिवायत और नई रिवायत को मिलकर एक ऐसी तस्वीर बनी, जिसने इंदौर को भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर कर दिया.
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