In Pics: सैकड़ों साल पुरानी गवरी परंपरा, गांव की खुशहाली के लिए लोग सवा महीने त्याग देते हैं घर
राजस्थान जहां पग-पग पर भाषा बदल जाती है तो कई अनोखी परंपराएं भी मिल जाती है. आज आपको ऐसी परंपरा से मिलवाने जा रहे हैं जो मेवाड़ में डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा समय से लगातार हर साल चली आ रही है.
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View In Appइस परंपरा में आदिवासी समाज सवा महीने या 40 दिन तक भगवान शिव की आराधना करते हैं. इनका मकसद सिर्फ एक ही होता है कि गांव में खुशहाली रहे.
यह परंपरा है गवरी, यह शब्द भी मां गौरी से आया है. यह नृत्य राखी त्यौहार के दूसरे दिन से शुरू हो जाता है जो लगातार 40 दिन तक चलता रहता है.
यह आदिवासियों का एक लोक नृत्य है जिसमें कई कहानियों का समावेश होता है. इसकी कहानी कुछ ना कुछ मैसेज देती है.
इस परंपरा का निर्वहन करने के लिए गांव का हर व्यक्ति जुड़ता है. राखी के दूसरे दिन से ही इसकी शुरुआत हो जाती है तब से ही वह अपने घर को त्याग देता है.
इन लोगों के पैर में ना चप्पल होता है और ना ही 40 दिन तक नहाते हैं. यहां तक की हरी सब्जियां, मांस या किसी मादक पदार्थ का सेवन तक नहीं किया जाता है और सिर्फ एक समय भोजन करते हैं.
इनके भोजन का समय भी फिक्स होता है. एक दिन में एक जगह सुबह 10 बजे से लेकर 5 बजे तक गवरी नृत्य होता है. इसके बाद वह जगह छोड़ते हुए दूसरी जगह या दूसरे गांव में जाकर अगले दिन वह नृत्य इसी समय शुरु करते हैं
एक गाँव से दूसरे गाँव बिना जूते के जाकर वहां नाचते हैं. बड़ी बात यह कि एक गांव के भील गवरी में उसी गांव जाएंगे जहां उसके गांव की बेटी का ससुराल हो.
इस गवरी में 8 या 9 अलग-अलग कहानियां पूरे दिन भर में नृत्य और गीतों के माध्यम बताते हैं. मुख्य रूप से इसमें भगवान शिव और भस्माशुर कि कहानी होती है.
इसके अलावा गांव में आने वाले डाकू लुटेरों की, पेड़ काटने वाले व्यक्तियों के खिलाफ लड़ाई लड़ने की, सहित अन्य कहानियां होती है.
गवरी में भाग लेने वाले सभी व्यक्ति अलग-अलग किरदार को निभाते हैं और वह उसी वेशभूषा में रहते हैं जो पौराणिक कथाओं के माध्यम से बताई गई है. वे अपने चेहरे पर मेकअप करते हैं, रंग बिरंगे कपड़े पहनते हैं, हाथों-पैरों में घुंघरू होते हैं, और तलवार भी लहराई जाती है. डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा पुरानी परंपरा अभी भी चल रही है.
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