राजस्थान (Rajasthan) में मुगल सेना को मेवाड़ यानी उदयपुर के क्षत्रियों ने कैसे धूल चटाई थी, यह तो इतिहास के किताबों में पढ़ा होगा. लेकिन 500 साल पहले हुए इस युद्ध को उदयपुर से 40 किलोमीटर दूर मेनार गांव में हर साल दोहराया जाता है. युद्ध भी कोई सामान्य नहीं, बंदूक और तोपें आग उगलती है और इनकी आवाज से मेवाड़ गूंज उठता है. यही नहीं तलवारें धार से चमक उठती हैं. बड़ी बात यह है कि इस बारूद की होली में किसी प्रकार का पुलिस जाब्ता नहीं लगाया जाता है. ग्रामीणों में इतना अनुशासन है कि बारूद की होली खेलते हुए भी कोई झगड़ा या किसी को कोई नुकसान नहीं होता है. यहां होली को दिवाली की तरह मानते हैं. क्योंकि यहां दिवाली के दिन सिर्फ दिए जलते हैं और सबसे बड़ा त्योहार जमरा बीज ही होता है.
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यहां दोपहर से ही कार्यक्रम की शुरुआत हो जाती है. दोपहर में गांव के सभी लोग एकत्र होते हैं. पूरे साल का लेखा-जोखा देखते हैं. पूरे साल में गांव में कितने बच्चे हुए इनके बारे में देखा जाता है. इस बार 42 लड़के और 25 लड़कियां हुईं. इनके घर से 50-100 रुपये लेकर गुड़ बांटा जाता है. फिर मेहमान नवाजी होती है. इसके बाद चौराहे पर पांच गलियां हैं, जहां गांव के बाहर जाने का रास्ता है. गांव में अलग-अलग क्षेत्र में रहने वाले युवा पांच टीमों में बंटते हैं और फिर आतिशबाजी होती है. आतिशबाजी भी ऐसी की दो घंटे तक एक सेकंड के लिए भी आवाज नहीं थमती. फिर पांचों टीम युद्ध के लिए तैयार होती है और हमले के आदेश पर पांचों चौक पर एकत्र होती है. बंदूकों-तोपों की बौछार होती है. चारों तरफ धुंआ और तेज आवाजों से इलाका गूंज उठता है.
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500 साल से चली आ रही इस परंपरा को निभाने के लिए सभी मेवाड़ी पोशाक में होते हैं. पोशाक में धोती-कुर्ता और कसुमल पाग पहने ग्रामीणों की पूरी रात बंदूके आग ऊगलती है. वहीं गरजती तोपों की गर्जनाओं से ओंकारेश्वर चौक का माहौल युद्ध जैसा हो जाता है. राजस्थान इतिहास के मुख्य कर्नल जेम्स टॉड ने भी मेनार का उल्लेख अपनी पुस्तक 'द एनालिसिस ऑफ राजस्थान' में मणिहार नाम के गांव के नाम से किया है. इस गांव का संबंध राजा मांधता से भी रहा है. वहीं महाराणा प्रताप के पिता उदय सिंह से इस गांव के कथानक जुड़े हैं.
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बात तब की है जब मेवाड़ पर महाराणा अमर सिंह का राज्य था. उस समय मेवाड़ की पावन धरा पर जगह-जगह मुगलों की छावनियां (सेना की टुकड़ियां) थीं. इसी तरह मेनार में भी गांव के पूर्व दिशा में मुगलों ने अपनी छावनी बना रखी थी. इन छावनियों के आतंक से लोग दुखी हो उठे थे. इस पर मेनारवासी मेनारिया ब्राह्मण भी मुगल छावनी के आतंक से त्रस्त हो चुके थे. ऐसे में भगवान परशुराम के वंशज और महाराणा उदय सिंह के रक्षक इसे कब तक सहते. जब मेनारवासियों को वल्लभ नगर छावनी पर विजय का समाचार मिला तो गांव के वीरों की भुजाएं फड़क उठीं. गांव के वीर ओंकारेश्वर चबूतरे पर इकट्ठे हुए और युद्ध की योजना बनाई गई. उस समय गांव छोटा और छावनी बड़ी थी. समय की नजाकत को ध्यान में रखते हुए कूटनीति से काम लिया. इस कूटनीति के तहत होली का त्योहार छावनी वालों के साथ मनाना तय हुआ. होली और धुलंडी साथ-साथ मनाई गई.
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चैत्र माघ कृष्ण पक्ष द्वितीया विक्रम संवत 1657 की रात्रि को राजवादी गैर का आयोजन किया गया. गैर देखने के लिए छावनी वालों को आमंत्रित किया गया. ढोल ओंकारेश्वर चबूतरे पर बजाया गया. नंगी तलवारों, ढाल और हेनियों की सहायता से गैर खेलनी शुरू हुई. अचानक ढोल की आवाज ने रणभेरी का रूप ले लिया. गांव के वीर छावनी के सैनिकों पर टूट पड़े. रात भर भयंकर युद्ध चला. ओंकार महाराज के चबूतरे से शुरु हुई लड़ाई छावनी तक पहुंच गई और मुगलों को मार गिराया और मेवाड़ को मुगलों के आतंक से बचाया गया. मुगलों पर विजय के उपहार में तत्कालीन महाराणा ने मेनार को 17वें उमराव की उपाधि प्रदान की थी. यही नहीं, मेनारवासियों से 52 हजार बीघा जमीन पर लगान तक नहीं वसूला गया. मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह प्रथम ने मुगलों पर विजय की खुशी में मेनार के ग्रामीणों को शौर्य के उपहार स्वरूप शाही लाल जाजम, नागौर के प्रसिद्ध रणबांकुरा ढोल, सिर पर किलंगी धारण करने का अधिकार प्रदान किया, जो परंपरा आज भी कायम है.