In Pics: क्या है प्रतापगढ़ की थेवा कला जिससे बनते हैं सोने के आभूषण लेकिन कीमत होती है बेहद कम, देखें तस्वीरें
सोने की बढ़ती कीमतों को लेकर सोने से बने आभूषण और ज्वेलरी की खरीदारी कम हो गई है. सोने के आभूषणों में खास चमक धमक वाली ज्वेलरी बाजार में मौजूद है, जो दिखने में सुंदर व महंगी है, लेकिन राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले की थेवा कला से तैयार की हुई जेवलेरी की कीमत जानकर आप भी हैरान हो जाएंगे.
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View In Appइतना बड़ा गले का हार जिसको देख कर आपको भी लगेगा यह लाखों रुपये का हो सकता है, लेकिन इस थेवा कला से तैयार की हुई है जेवलेरी की कीमत हजारों रुपए की ही है. कांच पर सोने चांदी से बने आभूषण हाथों से बनाए जाते हैं. थेवा कला के जरिए ज्वेलरी बनाने वाले प्रतापगढ़ जिले के चंद लोग ही हैं जो इस कला को जानते हैं. इस थेवा कला से बने आभूषण देश ही नही विदेश में भी प्रसिद्ध है.
राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले के रहने वाले अमित सोनी ने बताया कि हमारे आभूषणों थेवा कला के अनुसार तैयार किए गए हैं. थेवा कला से तैयार आभूषणों की मांग बाजार में बढ़ रही है लेकिन हमारे परिवार के कुछ लोग ही इस कला के जानकार हैं. थेवा कला से तैयार की हुई ज्वेलरी की कीमत बहुत कम होती है. दिखने में भारी भरकम वाले आभूषण की कीमत मात्र हजारों रुपये में ही होती है क्योंकि इसमें सोना कम लगता है.
राजस्थान के 33वें जिले के रूप में मान्यता प्राप्त मालवा अंचल के प्रतापगढ़ जिले की विशिष्ट ‘थेवा कला’ आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खूब नाम कमा रही है. विशेष प्रकार की दुर्लभ और अद्भुत कला होने के कारण इसका उल्लेख ‘एनसायक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका’ में भी हुआ है. इस कला को दुनिया तक पहुंचाने का श्रेय ‘राजसोनी’ परिवार के कलाकार को जाता है, जो 250-300 साल पहले अपने पूर्वजों के द्वारा शुरू की गई इस खास कला को सहेज रहे हैं. 'थेवा कला' में विभिन्न रंगों के शीशों (कांच ) को चांदी के महीन तारों से बने फ्रेम में डालकर उस पर सोने की बारीक कलाकृतियां उकेरी जाती हैं. जिन्हें कुशल और दक्ष हाथ छोटे-छोटे औजारों की मदद से बनाते हैं.
इस कला में पहले कांच पर सोने की शीट लगाकर उस पर बारीक जाली बनाई जाती है, जिसे 'थारणा' कहा जाता है. दूसरे चरण में कांच को कसने के लिए चांदी के बारीक तार से फ्रेम बनाया जाता है, जिसे 'वाडा' बोला जाता है. उसके बाद इसे तेज आग में तपाया जाता है. जिसके बाद शीशे पर सोने की कलाकृति और खूबसूरत डिजाइन उभर कर एक नायाब और लाजवाब आकृति का रूप ले लेती है. इन दोनों प्रकार के काम और शब्दों से मिलकर 'थेवा' नाम की उत्पत्ति हुई है. शुरुआत में 'थेवा' का काम लाल, नीले और हरे रंगों के मूल्यवान पत्थरों हीरा, पन्ना आदि पर ही होता था, लेकिन अब यह काम पीले, गुलाबी और काले रंग के कांच के रत्नों पर भी होने लगा है.
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