PFI क्या है और गृह मंत्रालय को क्यों बैन करना पड़ा पॉपुलर फ़्रंट ऑफ़ इंडिया? For Your Information
एपिसोड डिस्क्रिप्शन
पॉपुलर फ़्रंट ऑफ़ इंडिया, PFI, एक ऐसा भारतीय संगठन, जिसको भारत सरकार ने UAPA के तहत ग़ैरक़ानूनी संगठन घोषित कर बैन कर दिया है। PFI पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के आरोप हैं, हिंसा भड़काने के आरोप हैं। बीते कुछ दिनों में PFI के दफ़्तरों पर NIA और ED ने छापेमारी की है और कुल 250 से अधिक सदस्यों को गिरफ़्तार किया है।
PFI क्या है, उसका क्या इतिहास है, हिंसा से जुड़ी घटनाओं में उसका नाम इतना क्यों लिया जाता है। ABP LIVE PODCAST के इस एपिसोड में और बात करेंगे UAPA की भी, उसकी क्या भूमिका है। नमस्कार, मेरा नाम है मंगलम् भारत और आप सुन रहे हैं FYI यानि कि FOR YOUR INFORMATION.
गृह मंत्रालय की ओर से 28 सितम्बर 2022 बुधवार को एक नोटिस जारी किया गया, जिसमें हवाला दिया गया था अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ प्रिवेंशन एक्ट 1967 (UAPA) का और इसके तहत पीएफ़आई और उससे जुड़े 8 संगठनों को अगले 5 सालों के लिए अवैध घोषित कर दिया गया है। नोटिस में लिखा था कि इनकी ज़मीन को सील कर दिया जाए और बिना डीएम की परमिशन के कोई भी गतिविधि नहीं हो सकती।
उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक सरकार की ओर से पहले ही इस संगठन को बैन करने की माँग उठती आई है। ये बैन तब लगाया गया है, जब बीते 22 सितम्बर को NIA और ED ने PFI के दफ़्तरों पर छापेमारी की। उसके 109 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है।
गृह मंत्रालय ने कहा है कि PFI और उससे जुड़े संगठन ख़ुद को खुले में तो सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक संगठन के रूप में काम करते हैं, लेकिन पीठ पीछे ये लोकतंत्र को ख़त्म करने के कामों में लिप्त हैं, समाज के एक वर्ग को कट्टरपंथी बनाने के एजेंडे पर काम कर रहे हैं और देश की संवैधानिक व्यवस्था को ख़त्म करने की कोशिश कर रहे हैं। PFI ख़ुद कर्नाटक के हिजाब मामले में बहुत एक्टिव रहा है, इसके बाद सिटिज़नशिप अमेंडमेंट एक्ट हो या फिर हाथरस रेप का जो मामला था, उसमें माहौल बिगाड़ने में सक्रिय था।
PFI के सदस्य देश के एकता, अखंडता और संप्रभुता को नुकसान पहुँचा रहे हैं।
PFI पर इस तरह के बैन का क्या मतलब है?
आतंकवाद को लेकर UN में कई सारे रिजॉल्यूशन पास किए गए हैं और हमारे मोदी जी तो आतंकवादी गतिविधियों को निपटाने के पूरे मूड में रहते ही हैं। इससे इस संगठन की पूरी ज़मीन ज़ब्त कर ली जाएगी। आतंकवादी संगठन घोषित करने और उसे बैन करने पर ये संगठन आर्थिक लेन-देन नहीं कर पाएँगे। UAPA की धाराएँ इतनी सख्त हैं कि एक बार किसी पर लग जाएँ तो बच पाने की संभावनाएँ बहुत ज़्यादा नहीं बचती हैं।
इस समय देश में कुल 42 संगठन ऐसे हैं, जिनको आतंकवादी गतिविधि में लिप्त होने के कारण इस लिस्ट में रखा गया है, जिसमें लिट्टे, बब्बर खालसा इंटरनेशनल, इंडियन मुजाहिदीन, कॉम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया (माओवादी), हिज़बुल मुजाहिदीन, लश्कर ए तैयबा, ISIS जैसे संगठन आते हैं।
अब बात कर लेते हैं UAPA की। UAPA में किस प्रकार की धाराएँ हैं और उसकी क्या छवि है?
UAPA पर हमेशा से आरोप लगते आ रहे हैं कि इस क़ानून का इस्तेमाल सरकारें अपने फ़ायदे के करती हैं। वो संगठन जो सरकारों को नापसंद हैं, उनको ख़त्म करने के लिए या उनके काम में बाधा डालने के लिए इनका इस्तेमाल किया जाता है।
केंद्र सरकार द्वारा साझा किए गए आंकड़ों के अनुसार, 2016 से 2020 की अवधि में अधिनियम के तहत 5,027 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 24,134 लोगों को आरोपी बनाया गया। 24,134 लोगों में से केवल 212 को ही दोषी ठहराया गया और 386 को बरी कर दिया गया। इसका मतलब है, 2016-2020 के वर्षों में, यूएपीए के तहत गिरफ्तार किए गए लोगों में से 97.5% लोग मुकदमे की प्रतीक्षा में जेल में हैं।
25 जुलाई 2021 को, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश, न्यायमूर्ति आफताब आलम ने "Discussion On Democracy, Dissent and Draconian Law – Should UAPA & Sedition Have A Place In Our Statute Books?" शीर्षक से एक वेबिनार पर बात की। चर्चा में, उन्होंने यूएपीए को एक "कठोर कानून" कहा और कहा कि यह यूएपीए था जिसने बिना मुकदमे के फादर स्टेन स्वामी की मृत्यु का कारण बना। स्टेन स्वामी एक कार्यकर्ता थे जिन पर 2018 भीमा कोरेगांव हिंसा में उनकी कथित भूमिका और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) से संबंध रखने के लिए UAPA का आरोप लगाया गया था और बाद में COVID-19 के कारण जेल में उनकी मृत्यु हो गई। आलम ने आगे कहा कि यूएपीए की वास्तविक सजा दर 2% है। उन्होंने आगे कहा कि यह कानून उन स्थितियों को जन्म दे सकता है जहां मामला विफल हो सकता है लेकिन आरोपी को 8 से 12 साल की कैद हो सकती है। उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में, मामले में खड़े होने के लिए कोई पैर नहीं हो सकता है लेकिन आरोपी को भुगतना पड़ा है और उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि ऐसे मामलों में प्रक्रिया सजा बन जाती है।
तो जो UAPA का क़ानून है, वो ख़ुद भी सवालों के घेरे में है। ख़ैर...
अब सवाल उठता है कि PFI के पास क्या बचा है ख़ुद को बचाने के लिए? क्योंकि सरकार ने तो अपनी कार्रवाई कर दी।
एक संस्था के तौर पर PFI ख़ुद, या कोई ऐसा सदस्य जिसको PFI के इस बैन का नुकसान झेलना पड़ रहा हो, केन्द्र सरकार को एक एप्लिकेशन भेज सकता है। इसके बाद एक रीव्यू कमेटी बैठती है जिसे हाई कोर्ट के कोई पूर्व जज अध्यक्षता करते हैं। अगर कोर्ट को लगता है कि संस्था या व्यक्ति पर जो आरोप लगाए गए हैं वो पूरी तरह से बेबुनियाद हैं, तो रीव्यू कमेटी उस संस्था या व्यक्ति को इससे बरी कर सकती है।