BY: शिवेन्द्र कुमार सिंह, वरिष्ठ खेल पत्रकार





ये विज्ञापन हर तरफ बज रहा है. बज क्या रहा है गूंज रहा है साहब. आईपीएल के उस बाजे की तरह जो पहले सिर्फ स्टेडियम में बजता था बाद में आईपीएल की पहचान ही बन गया. इस तरह के और भी कई विज्ञापन हैं जो इस बात को साबित करने पर तुले हुए हैं कि होली-दीवाली-ईद-क्रिसमस की तरह इन दस सालों का जश्न भी मना ही लो. दस साल का जश्न मनाने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन ये पता चल जाए जश्न वाला ‘आप’ है कौन? ये ‘आप’ आम आदमी पार्टी नहीं है. ये ‘आप’ आप भी नहीं हैं. ये ‘आप’ आम क्रिकेट फैंस भी नहीं है. यानि सवाल ये है कि ‘आप’ है कौन, जिसके नाम दस का जश्न मनाया जा रहा है. असल में कहानी कुछ और ही है.



पिछले दस साल में आईपीएल ने जितने रंग बदले हैं उससे ये बात दावे से कही जा सकती है कि इस दस साल के जश्न में ‘आप’ तो एक छोटा सा हिस्सा भर हैं हूजूर. यहां आप का मतलब है पैसा, आप का मतलब है विवाद और आप का मतलब है ग्लैमर. पैसा और ग्लैमर को छोड़ भी दिया जाए तो विवादों की फेहरिस्त भी काफी लंबी है. आज बीसीसीआई की जो हालत हुई है उसके पीछे भी आईपीएल में आई विसंगतियां ही हैं. ना स्पॉट फिक्सिंग सामने आई होती ना आज बीसीसीआई की रूपरेखा बदली होती. ये पहला मौका है जब आईपीएल तो हो रहा है लेकिन उसे संचालित करने वाले चेहरों का बीसीसीआई से कोई सीधा लेना देना नहीं है. ऐसी परिस्थितियों में जब किसी टूर्नामेंट की ‘ब्रैंडिंग’ आम क्रिकेट प्रेमी को लेकर की जा रही है तो सवाल उठना लाजमी है कि क्या इस लीग का अब आम क्रिकेट फैंस से वही कनेक्शन रह गया है जो आज से दस साल पहले था? इस सवाल का जवाब है नहीं,  कैसे- चलिए हम बताते हैं आपको.



सिर्फ आलोचना करना मकसद नहीं



सबसे पहले तो ये बात साफ कर देते हैं कि हमारा मकसद आईपीएल की आलोचना करना नहीं है. अगर कोई लीग दुनिया की सबसे मशहूर लीग में शुमार है. अगर लीग के दस साल पूरे हो रहे हैं तो निश्चित तौर पर इसे लोगों का प्यार हासिल है. इस लीग से सैकड़ों घरेलू खिलाड़ियों को पैसे मिलते हैं. ग्राउंड्समैन से लेकर सपोट स्टाफ तक सैकड़ों ऐसे लोग हैं जिन्हें आईपीएल के जरिए रोजी रोटी मिलती है. बड़ा सवाल ये है कि क्या आईपीएल के आयोजन का मकसद सिर्फ इतना था? नहीं, बिल्कुल नहीं. इसीलिए इस पोस्ट का मकसद आईपीएल की आलोचना करना नहीं बल्कि आम क्रिकेट प्रेमी को इस भ्रम से बाहर निकालना है कि दस साल वाले जश्न में जो ‘आप’ है वो दरअसल आप नहीं हैं.



पूरा का पूरा ढांचा ही बदल गया



पिछले नौ साल में इंडियन प्रीमियर लीग का चेहरा इतनी तरह से और इतनी बार बदला है कि अब लीग की तस्वीर ही बदल गई है. दावा था कि इस लीग के जरिए घरेलू क्रिकेट को बढ़ावा मिलेगा, लोकल खिलाड़ियों को टीम के साथ जोड़ा जाएगा, अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों को उनके स्टेट के ‘आइकॉन खिलाड़ी’ का दर्जा दिया जाएगा. लेकिन पिछले नौ साल में एक एक करके इन सारे उद्देश्यों को ताक पर रख दिया गया और सिर्फ एक उद्देश्य रह गया- ज्यादा से ज्यादा कमाई. हर्ज ज्यादा कमाई करने में भी नहीं है लेकिन उसके लिए किसी लीग की सूरत शक्ल ही बदल दी जाए तो सवाल उठता है. 





 



इन खिलाड़ियों के नाम हैं, खरीदार नही:



दसवें साल तक पहुंचते पहुंचते हालत ये है कि अब दिल्ली की टीम से दिल्ली गायब है और पंजाब की टीम से पंजाब. यहां तक कि इरफान पठान और चेतेश्वर पुजारा जैसे खिलाड़ियों का कोई खरीदार नहीं है. दोनों टीम इंडिया के लिए खेल चुके हैं. एक बीते दिन का स्टार है और एक आज का. लेकिन टीम की जरूरतों में फिट नहीं होते इसलिए ये दोनों खिलाड़ी आईपीएल से बाहर हैं. इन बातों पर गौर करना चाहिए कि पिछले कुछ सीजन से आइकॉन खिलाड़ी का कॉन्सेप्ट भी हटा दिया गया.





इंडियन प्रीमियर लीग में 8 में से 4 कप्तान हैं विदेशी:



आज आठ में से चार टीमों के कप्तान विदेशी खिलाड़ी हैं. आईपीएल में विराट कोहली के शुरूआती हफ्तों में नहीं खेल पाने की वजह से पुणे, पंजाब और हैदराबाद के बाद अब बैंगलोर टीम की कप्तानी भी कोई विदेशी खिलाड़ी कर सकता है. साथ ही पहले 28-30 खिलाड़ियों को रखने वाली फ्रेंचाइजियों ने खुद को 16-18 खिलाड़ियों तक रोक लिया. कम खिलाड़ी-कम खर्च. पिछले कुछ सीजन में टीमों के मालिकों ने भी कम से कम खिलाडियों की टीम बनाई है. जिन 11 खिलाड़ियों को मैदान में उतरना है, उसके अलावा गिने चुने खिलाड़ियों को ही एक शहर से दूसरे शहर ‘ट्रैवल’ कराया जाता है. कुल मिलाकर इंडियन प्रीमियर लीग अब एक ऐसी लीग बन चुकी है जिसके उद्देश्य बिल्कुल नए और साफ हैं- बीसीसीआई और टीम मालिकों को ज्यादा से ज्यादा फायदा चाहिए. भारतीय क्रिकेट के बुनियादी ढांचे में बेहतरी का अब बस ड्रामा है और इसके जश्न को आपके नाम से जोड़कर असली मकसद पैसा कमाना है.