बिहार चुनाव: आरजेडी-कांग्रेस में अंतिम दौर की बातचीत से पहले दबाव की रणनीति, इसी हफ्ते होगा गठबंधन की सीटों का एलान
2015 में हुए विधानसभा चुनाव में आरजेडी ने 80 कांग्रेस ने 27 और वामदलों में सीपीआई एमएल को तीन सीट मिली थी. चुनाव में जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस के महागठबंधन की जीत हुई थी.
नई दिल्ली: बिहार विधानसभा चुनाव में मुख्य विपक्षी गठबंधन यानी आरजेडी-कांग्रेस-वाम दल के बीच सीटों को लेकर बातचीत अन्तिम दौर में है और सूत्रों के मुताबिक इसी हफ्ते के अंत में सीटों का एलान हो जाएगा. हालांकि एलान से पहले आरजेडी और कांग्रेस एक दूसरे पर सीटों को लेकर दबाव बना रहे हैं. सूत्रों की मानें तो आरजेडी करीब 150, कांग्रेस करीब 70 और वामदल 20 सीटों पर चुनाव लड़ सकते हैं. बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं.
सुत्रों के मुताबिक 10 के करीब ऐसी सीटें हैं, जिन पर आरजेडी और कांग्रेस के बीच बातचीत अभी चल रही है. आरजेडी अपनी सीटें कुछ और बढ़ा सकती है, क्योंकि वह अपने चुनाव चिन्ह पर वीआईपी पार्टी के आधा दर्जन उम्मीदवारों को उतारेगी. वाम दलों में सीपीआई, सीपीएम, और सीपीआई एम एल शामिल है. बिहार में पहले चरण के मतदान के लिए 1 अक्टूबर से नामांकन शुरू हो रहा है. सूत्रों के मुताबिक 2 या 3 अक्टूबर को गठबंधन का एलान हो सकता है.
जहां तक आरजेडी और कांग्रेस के बीच सीटों के बंटवारे का सवाल है, तो बातचीत की शुरुआत में ही तय हो गया था कि 2015 वाले फॉर्मूले के तहत कांग्रेस की लड़ी हुई 41 सीट और आरजेडी की 101 सीट परस्पर दोनों के पास रहेगी. बची 101 सीटों में से 20 वाम दलों के लिए और 50 सीट आरजेडी, 30 कांग्रेस के खाते में आईं. हालांकि कांग्रेस लोकसभा चुनाव वाले अनुभव की वजह से सावधानी बरत रही है, जब आरजेडी के साथ गठबंधन में पहले कांग्रेस के लिए 12 सीटें तय हुई थीं, लेकिन बाद में मिली केवल 9 सीटें. उस समय आरजेडी ने राज्यसभा की एक सीट कांग्रेस को देने का वादा किया था, जिससे बाद में वह मुकर गई.
इस वजह से कांग्रेस ने आरजेडी को साफ तौर पर सन्देश दिया हुआ है कि अगर लोकसभा चुनाव जैसी कोई कोशिश हुई, उसे सम्मानजनक सीटें नहीं मिली तो वह गठबंधन बरकरार नहीं रखेगी. हालांकि सूत्रों का कहना है कि गठबंधन टूटने की नौबत नहीं आएगी, क्योंकि इससे कांग्रेस का काफी नुकसान तो होगा ही आरजेडी भी मुकाबले से बाहर हो जाएगी. ऐसे में इंतजार विपक्षी गठबंधन में सीटों के एलान का है, जिससे साफ हो जाएगा कि क्या कांग्रेस को दबाव बनाने का फल मिला या नहीं.
हालांकि विपक्ष के इस गठबंधन को जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा के रूप में दो झटके लगे लग चुके हैं. मांझी की पार्टी 'हम' एनडीए से मिल चुकी है और कुशवाहा की आरएलएसपी भी उसी रास्ते पर है. दोनों ने ही आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन में 'सम्मान' का मुद्दा उठा कर किनारा किया है. अंदर की बात यह है कि आरजेडी और कांग्रेस चाहते थे कि मांझी और कुशवाहा के उम्मीदवार अपनी पार्टी की जगह आरजेडी या कांग्रेस के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ें. आरजेडी और कांग्रेस का मानना है कि चुनाव के बाद इन छोटे दलों में टूट का खतरा बना रहता है. इसलिए अगर इनके उम्मदीवार आरजेडी या कांग्रेस के चुनाव चिन्ह पर जीतते हैं, तो उनके दूसरी पार्टी में जाने का खतरा नहीं रहेगा. सूत्रों के मुताबिक इस शर्त को मांझी और कुशवाहा ने स्वीकार नहीं किया.
जाहिर है इनके अलग होने से आरजेडी-कांग्रेस-वामदल के गठबंधन में सीट बंटवारा तो आसान हो गया, लेकिन साथ ही मांझी का दलित वोट और कुशवाहा का ओबीसी वोट का काफी हद तक नुकसान भी माना जा रहा है. हालांकि कांग्रेस-आरजेडी के रणनीतिकार नुकसान वाली बात से इनकार करते हैं.
2015 में हुए विधानसभा चुनाव में आरजेडी ने 80 कांग्रेस ने 27 और वामदलों में सीपीआई एमएल को तीन सीट मिली थी. चुनाव में जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस के महागठबंधन की जीत हुई थी, लेकिन करीब दो साल बाद नीतिश कुमार ने महागठबंधन से अलग होकर बीजेपी के साथ सरकार बना ली थी.