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Muharram 2024: इंसानियत की मिसाल इमाम हुसैन की याद में आरा में निकला मातमी जुलूस, जानें क्यों मनाते हैं मुहरर्म?

Muharram In Ara: मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन की याद में मनाया जाने वाला मोहर्रम केवल इस्लाम धर्म के एक महीने का नाम नहीं है, बल्कि यह एक बड़ी एतिहासिक दुखद घटना का नाम है.

Mourning Procession Taken Out In Arrah: पूरे बिहार में इन दिनों हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत इमाम हुसैन की याद मानाए जाने वाले दस दिनों के मुहर्रम का दौर चल रहा है. इमामबाड़े में मजलिसों (प्रवचन) और चौक चौराहों पर मातमी जुलूस निकाले जा रहे हैं. इन दिनों मुसलमान शोक में डूबे होते हैं. इमाम की याद में बिहार के आरा में भी सातवीं मुहर्रम को मातमी जुलूस निकाला गया, जिसमें छोटे-छेटे बच्चे भी शामिल होकर इमाम का मातम करते नजर आए.   

200 सालों से आरा में निकल रहा मतमी जुलूस

बिहार के आरा में 200 वर्षो से कर्बला के शहीदों की याद में मातमी जुलुस निकला जा रहा है. इसमें कर्बला मे हजरत इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की शहादत को याद करके नौहा पढ़ा जाता है और मातम किया जाता है. शिया समुदाय के लोग विशेषकर काला वस्त्र पहनकर इस शोकपूर्ण घटना की याद में नौहा (शोकगीत) पढ़ते हुए जुलूस निकालते हैं और मातम कते हैं. 

इस जुलूस में सभी समुदाय के लोग इस शोकपूर्ण घटना की याद में शामिल रहते हुए अपना भरपूर सहयोग करते हैं. शहीदों के नाम का मातमी जुलूस हर साल आरा के महादेवा महाजन टोली नंबर 1 के डिप्टी शेर अली के इमामबाड़ाे से निकाला जाता है, जो महादेवा रोड, धर्मन चौक, गोपाली चौक, शीश महल चौक, बिचली रोड होते हुए वापस धर्मन चौक, महादेवा रोड के डिप्टी शेर अली के इमामबाड़ा में जाकर समाप्त होता है. खास बात ये है कि ये पूरा जुलूस शांतिपूर्ण तरीके से शोक में डूबा हुआ इंसानियत के पैगाम को सुनाता हुआ निकलता है. 

जुलूस में शामिल आरा एलआईसी के डीओ सैयद रेयाज हुसैन ने बताया कि इमाम हुसैन की पूरी जिंदगी और कर्बला की जंग इंसानियत और मानवता को कायम रखने की एक बहुत बड़ी मिसाल पेश करती है. जिसका जिक्र महात्मा गांधी से लेकर सरोजनी नायडू, डा. राजेंद्र प्रसाद और नेल्सन मंडेला ने अपने कई बयानों में किया है.

 

वहीं शांति निकेतन विश्वविद्यालय से आए इतिहास विभाग के एचओडी सैयद एजाज हुसैन ने कहा कि इमाम हुसैन का संदेश और उनकी बताए रास्ते पर चल कर ही दुनिया में शांति और भाइचारा कायम हो सकता है. इमाम हुसैन को मानने वालों में सिर्फ मुसलान ही नहीं हैं, बल्कि उनके चाहने वाले हिंदू भाइयों से लेकर इसाई और यहूदी तक शामिल हैं. पूरी दुनिया में जहां जाइये वहां इमाम हुसैन की याद में शोक मनाते लोग नजर आ जाएंगे. कर्बला की जंग में इमाम हुसैन का साथ देने के लिए भारत से भी कुछ हिंदू भाई गए थे, जो आज भी इराक और इरान में बसे हुए हैं. 

बता दें कि पैगंबर मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन की याद में मनाए जाने वाले मोहर्रम केवल इस्लाम धर्म के एक महीने का नाम नहीं है, बल्कि यह एक बड़ी एतिहासिक दुखद घटना का नाम है, जो इस्लामिक कैलेंडर अनुसार इस साल 7 जुलाई 2024 से शुरू हुआ, वहीं 17 जुलाई को दसवीं तारीख है, जिसे आशूरा कहते है. इस्लाम धर्म के लोग इसे त्योहार के रूप में नहीं बल्कि एक यादगार के रूप में मनाते हैं, जो शोक में डूबा हुआ होता है. हालांकि मुसलिमों के अलग-अलग समुदाय में इसे मनाने के तरीके अगल-अलग हैं, लेकिन इमाम हुसैन की सच्चाई, इंसानियत और इस्लाम के लिए उनके योगदान को सभी मुसलमान दिलो जान से मानते हैं. 

यजीद ने इमाम हुसैन को कत्ल क्यों किया?

अरब के इतिहास में दर्ज ये एक ऐसी जंग है, जिसमें 80 साल के बुजुर्ग इमाम हुसैन से लेकर 6 महीने तक के उनके मासूम बेटे को भी तीर मारकर शहीद कर दिया गया था. इंसानियत और सत्य की लड़ाई में हजरत इमाम हुसैन ने अपने 71 साथियों के साथ कर्बला के मैदान में तीन रोज तक बिना पानी ओर खाने के भूखे रखकर जंग लड़ी थी. यहां तक की छोटे-छोटे बच्चों पर भी पानी बंद कर दिया गया था. उस समय के शाम (अरब का एक देश) के बादशाह यजीद ने अपने साम्राज्य को कायम रखने के लिए मनावता पर बर्बरीयत की सारी हदें पार कर दी थीं. 

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