बिहारः बांका का एक ऐसा गांव जहां घर-घर था हस्तकरघा उद्योग, इनके कंबल से गर्म होता था झारखंड, पढ़ें पूरी खबर
भेड़ के ऊन से चरखे और अन्य उपस्करों के माध्यम से लोग कंबल, आसनी आदि का उत्पादन करते थे. इस आबादी का यह जिले में इकलौता गांव है. यहां आज भी 35 से 40 परिवार के लोग रहते हैं.
बांकाः जिले के रजौन प्रखंड क्षेत्र के रजौन-धोरैया सीमा पर स्थित विष्णुपुर गांव में आज भी गड़ेरी जाति की बड़ी आबादी रहती है. एक समय था जब इस गांव के लोग भेड़ के ऊन से चरखे और अन्य उपस्करों के माध्यम से कंबल, आसनी आदि का उत्पादन करते थे. इनके द्वारा बनाए गए कंबल को कभी बिहार से सटे राज्य झारखंड में भी बेचा जाता था. आज लोग वर्षों से प्रशासनिक उदासीनता और आर्थिक विपन्नता के शिकार हैं. लोग हाल के वर्षों तक अपने परंपरागत रोजगार से जुड़े हुए थे, लेकिन शासन-प्रशासन ने कभी इनकी सुधि नहीं ली. इसके कारण अब ये लोग अपनी पुस्तैनी हस्तकरघा व्यवसाय छोड़ने को मजबूर हैं.
दरअसल, इस आबादी का यह जिले में इकलौता गांव है. यहां आज भी 35 से 40 परिवार के लोग रहते हैं. किसी जमाने में विष्णुपुर गांव का कंबल, आसनी बांका और भागलपुर जिला ही नहीं बल्कि पड़ोसी राज्य झारखंड के महागामा, पथरगामा, गोड्डा, साहिबगंज सहित अन्य स्थानों तक में काफी लोकप्रिय था. रेडीमेड और आधुनिक मशीन से बने कंबल के बाजार में आने से देसी भेड़ के ऊन से बुने कंबल की मांग खत्म हो गई. इसके बाद इन बुनकर परिवारों का पुस्तैनी धंधा चौपट हो गया.
शाहकुंड, समस्तीपुर में मशीन से होती थी धुनाई
ग्रामीण कैलाश राजपाल, सुरेश राजपाल बताते हैं कि एक समय संथाल परगना व दक्षिण के क्षेत्रों का भ्रमण कर प्रति भेड़ 20 से 25 रुपया देकर खुद से भेड़ का बाल काटकर घर लाकर कंबल बनाते थे. भेड़ का बाल नदी, तालाब, बांध में साफ कर सुखाने के बाद शाहकुंड, समस्तीपुर में मशीन से धुनाई कराके लाने के बाद घर की महिलाएं चरखे पर धागा तैयार करती थीं. घर के पुरुष हस्तकरघा के जरिए कंबल तैयार कर आसपास के क्षेत्रों में पैदल घुम-घुमकर बेचते थे.
कंबल बनाने वाले स्व. राम राजपाल की पत्नी नीलम देवी बताती हैं कि कंबल बुनने का धंधा करीब छह-सात साल से छोड़ दिया है. वहीं गांव के जयप्रकाश राजपाल बताते हैं कि सरकार ने कंबल बुनकरों की कभी सुध नहीं ली. इसके कारण वे लोग पुस्तैनी धंधे को छोड़कर अब खेती कर रहे हैं.
गांव में पाले जाते थे सैंकड़ों भेड़
ग्रामीणों के अनुसार गांव के सौदागर राजपाल, बाल गोविंद राजपाल, जगदीश राजपाल, भागवत राजपाल आदि के पास सैकड़ों भेड़ थे. इनके निधन के बाद भेड़ पालन कमजोर हुआ. वहीं, इन सभी बुनकर परिवारों के नए सदस्य भी पुश्तैनी धंधे के बदले बाहर चले गए. कोरोनाकाल में परदेश से लौटे बुनकर परिवार पुश्तैनी धंधा भी बंद रहने से आर्थिक तंगी से कराह रहे हैं.
तत्कालीन विधायक ने दिलाया था भरोसा
बताया जाता है कि गड़ेरिया जाति के उत्थान के लिए 2011 में धोरैया विधानसभा के तत्कालीन जेडीयू विधायक मनीष कुमार ने गांव में पहुंचकर बुनकरों को सहायता का भरोसा दिया था, लेकिन 10 साल बीत जाने के बाद भी सहायता की बात तो दूर कोई देखने तक नहीं आया.
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