सूना पड़ा पिंडदान के लिए मशहूर जम्होर का पुनपुन घाट, कोरोना के अलावा ये है बड़ी वजह
आदि गंगा के नाम से विख्यात पुनपुन नदी का जम्होर स्थित पिंडदान घाट जहां प्रथम पिंड दिए जाने की परंपरा है वह घाट पिछले एक वर्ष से कोरोना की मार झेल रहा है.
औरंगाबाद: शास्त्रों में पिंडदान का काफी महत्व है कहते हैं पिंडदान कर लोग अपने पितरों की आत्मा के लिए मोक्ष की कामना करते है. आदि गंगा के नाम से विख्यात पुनपुन नदी का जम्होर स्थित पिंडदान घाट जहां प्रथम पिंड दिए जाने की परंपरा है वह घाट पिछले एक वर्ष से कोरोना की मार झेल रहा है.
शास्त्र में यह वर्णित है कि भगवान श्री राम मां सीता के साथ पुनपुन घाट पर अपने पितरों को प्रथम तर्पण दिया था तत्पश्चात गया के फल्गु नदी में पिंडदान के कार्य को सम्पन्न किया था.साल में तीन बार पिंडदान के लिए जम्होर स्थित पुनपुन नदी घाट पर पिंडदानी आते हैं और यहां अपने पितरों का तर्पण करते हैं.
शास्त्र के अनुसार वर्ष में पौष, चैत्र और आश्विन कृष्ण पक्ष में पितरों को पिंड दिए जाने की परंपरा है. जम्होर के अनुग्रह नारायण रोड स्थित पुनपुन घाट प्रथम पिंड स्थल के रूप में देश ही नहीं विश्व में विख्यात है और यही कारण है यहां देश के कोने कोने ही नहीं विश्व के विभिन्न देशों से पिंडदानी आकर पिंड देते हैं.
पिंडदानी यहां के बाद गया के फल्गु नदी में पितरों का तर्पण कर मोक्ष की कामना करते हैं. जिले के जम्होर पुनपुन घाट पर 31 दिसंबर से लेकर 14 जनवरी तक पिंडदान का कार्य किया जाता है. परंतु इस वर्ष नेपाल भारत सीमा पर विवाद एवं कोरोना के कारण नेपाल, थाईलैंड एवं भूटान के पिंडदानी यहां अभी तक नही पहुंच पाए.
यह घाट पिछले एक वर्ष से सूना पड़ा हुआ है,इधर कोरोना काल में थोड़ी सी ढील होने के कारण इस वर्ष पिंडदान का कार्य से जुड़े पुरोहितों को ऐसा लगा था कि खरमास के दौरान 15 दिनों तक चलने वाला पिंडदान का कार्य इस वर्ष अच्छा रहेगा,क्योंकि यह पक्ष में नेपाल, भूटान और थाईलैंड के पिंडदानियों के पितरों के पिंडदान के लिए बेहतर माना जाता है.
लेकिन भारत नेपाल सीमा विवाद के कारण नेपाली पिंडदानी यहां नही पहुंच सके. पुनपुन घाट के कुंदन पाठक ने बताया कि अभी पौष कृष्ण पक्ष चल रहा है जो नेपाली एवं भूटान के लोगों के लिए पिंडदान का सबसे उपयुक्त माना जाता है, परंतु मुहूर्त समाप्त होने में कुछ ही दिन शेष रह गए हैं और इतने दिनों में एक भी नेपाली पिंडदानी यहां अपने पितरों का तर्पण करने नहीं पहुंच पाए हैं.
पुरोहित की माने तो वर्ष 1976 से पहले रेलवे लाइन और धर्मशाला के पश्चिमी छोर के तरफ के घाट में पिंडदान की सुदृढ एवं बेहतर व्यवस्था थी, परंतु 1976 में आई प्रलयंकारी बाढ़ के कारण घाट तबाह हो गया. जिसके अवशेष आज भी नदी के जलस्तर घटने के बाद देखे जा सकते हैं.
घाट के समाप्त होने के बाद तत्कालीन जिला प्रशासन के निर्देश पर रेलवे लाइन के उत्तर की तरफ एक वैकल्पिक व्यवस्था बनाई गई थी और यह आश्वासन दिया गया था कि यहां भी घाट की बेहतर व्यवस्था की जाएगी परंतु आज तक कोई ऐसी व्यवस्था यहां नहीं मिल पाई.
यहां पिंडदान का कार्य करा रहे पुरोहितों को यह चिंता है कि रेलवे के द्वारा निर्मित फ्रेट कोरिडोर बनने के कारण यह घाट भी समाप्त हो जाएगा।. ऐसे में सदियों से चली आ रही पिंडदान की परंपरा यहां कैसे संपन्न होगी यह एक यक्ष प्रश्न है.