दरभंगा: लोक आस्था के महापर्व छठ समाप्त होने के बाद मिथिलांचल में भाई-बहनों के अटूट स्नेह और प्रेम का प्रतीक सामा-चकेवा के पर्व की शुरुआत हो चुकी है. सामा-चकेवा की मूर्ति निर्माण में मिथिला के घर-घर में बच्ची और नवयुवती तन्मयता से लग गई हैं. ग्रामीण क्षेत्रों का चप्पा-चप्पा सामा-चकेवा की गीतों से अनुगूंजित है. मिथिलांचल में भाईयों के कल्याण के लिए बहने यह पर्व मनाती है.



बता दें कि इस पर्व की चर्चा पुराणों में भी है. सामा-चकेवा पर्व की समाप्ति कार्तिक पूर्णिमा के दिन होगी. इस पर्व के दौरान बहनें सामा, चकेवा, चुगला, सतभईयां को चंगेरा(डलिया)में सजाकर पारंपरिक लोकगीतों के जरिये भाईयों के लिए मंगलकामना करती हैं. सामा-चकेवा का उत्सव पारंपरिक लोकगीतों से है.



संध्याकाल होते ही " गाम के अधिकारी तोहे बड़का भैया हो", "छाऊर, छाऊर, छाऊर, चुगला कोठी छाऊर भैया कोठी चाऊर ", " साम चके साम चके अबिह हे, जोतला खेत मे बैसिह हे " और भैया जीअ हो युग युग जीअ हो" सरीखे लोकगीत और जुमले के साथ जब बहन चुगला दहन करती हैं, तो वह दृश्य मिथिलांचल की मनमोहक पावन संस्कृति की यादें ताजा कर देती है.


कार्तिक शुक्ल पंचमी से प्रारंभ हुआ यह पर्व पूर्णिमा तक मनाया जाता है. माहात्म्य से जुड़े इस पर्व के सम्बन्ध में कई किंवदंतियां हैं. अलबत्ता जो भी हो मिथिलांचल में तेजी से बढ़ रही बाजारवादी और शहरीकरण के बावजूद यहां के लोग अपनी संस्कृति को अक्षुण्न बनाये हुए हैं.


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