बिहार में जाति सर्वे शुरू होने के साथ ही विवादों में घिर गया है. सुप्रीम कोर्ट में जाति सर्वे को रोकने की मांग को लेकर याचिका दाखिल की गई है. 500 करोड़ रुपए खर्च कर गणना करवा रही नीतीश सरकार इसे सर्वे कह रही है. बिहार कैबिनेट ने इस सर्वे के लिए 500 करोड़ रुपए की मंजूरी दी है.


डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने कहा कि यह जनगणना नहीं, कास्ट बेस्ड सर्वे है. उन्होंने कहा है कि इस सर्वे से बिहार में विकास को गति मिलेगी. नीतीश सरकार के बैकफुट पर आने की बड़ी वजह जनगणना कानून 1948 और जनगणना कराने का अधिकार है.


इस कानून के मुताबिक जनगणना एक गोपनीय प्रक्रिया है और इसे केंद्र ही करा सकती है. 2015 में कर्नाटक सरकार ने भी जातीय जनगणना करवाया था, लेकिन गोपनीयता भंग होने की वजह से डेटा जारी नहीं कर पाई. 


इस स्टोरी में बिहार में हो रहे जातीय सर्वे और उससे जुड़े तमाम सवालों के बारे में जानते हैं...


सुप्रीम कोर्ट करेगा सुनवाई, क्यों?
बिहार सरकार के इस कथित कास्ट बेस्ड सर्वे को याचिकाकर्ता ने जातीय जनगणना कह चुनौती दी है.  नालंदा निवासी अखिलेश कुमार ने याचिका दाखिल कर कहा है कि जनगणना कराने का काम केंद्र का है. जनगणना कानून-1948 के मुताबिक जातियों की गिनती नहीं हो सकती है. ऐसे में बिहार सरकार फैसला असंवैधानिक है और इसे रद्द किया जाए. 


डेटा वैलिड पर सवाल क्यों, 3 प्वॉइंट्स
1. डेटा जारी करने पर सस्पेंस- बिहार सरकार कथित सर्वे कराने के बाद भी राज्य सरकार इसका डेटा जारी नहीं कर सकती है. इसे गोपनीयता का उल्लंघन माना जा सकता है. दरअसल, संविधान के 7वीं अनुसूची में जनगणना के कार्यों का जिक्र किया गया है.


इसके मुताबिक जनगणना कराने का अधिकार केंद्र के पास है. इसी अनुसूची में रक्षा, विदेश मामले, शांति और युद्ध जैसे विषय भी हैं. डीएमके ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर गणना को समवर्ती सूची में रखने की मांग की थी. डीएमके का कहना था कि इससे डेटा जुटाने और पब्लिश करने में राज्य सरकार को सुविधा होगी. 


इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन स्टडी में डेटा विभाग के प्रमुख डॉ एसके सिंह के मुताबिक वैलिड डेटा के लिए रजिस्टार जनरल ऑफ इंडिया की परमिशन जरूरी है. RGI सर्वे करने वाली टीम के मेथेडोलॉजी को पहले समझती है, फिर उसकी अनुमति देती है.


वैसे किसी भी तरह का सर्वे करने के लिए कोई भी एजेंसी और सरकार स्वतंत्र है. हां, अगर सरकार ने जनगणना का फॉर्मेट अपनाया तो कर्नाटक की तरह डेटा रिलीज नहीं कर पाएगी. 


2. सही जानकारी नहीं मिलने की चुनौती- राज्य की ओर से गणना कराने पर दूसरी सबसे बड़ी चुनौती सही डेटा जुटाने की है. चूंकि जनगणना का अधिकार केंद्र के पास है, तो उस वक्त सही जानकारी नहीं देना अपराध माना जाता है. 


लेकिन राज्यों के पास कार्रवाई के लिए इस तरह का कोई कानून नहीं है. राज्य सरकार ने लोगों से सही डेटा देने की अपील की है. 


3. मुस्लिम में दलित जाति नहीं- भारत सरकार की ओर से मुसलमानों में सिर्फ सवर्ण और पिछड़ा जाति को ही चिह्नित किया गया है, जबकि कई मुस्लिम जातियां खुद को लंबे अरसे से दलित समुदाय में शामिल करने की मांग करती आई है. 


ऐसे में मुसलमानों का भी सही डेटा जुटाने की चुनौती है. बिहार में मुस्लिम आबादी 16 फीसदी से ज्यादा है.


केंद्र सरकार जनगणना कैसे करती है?
वर्तमान मे केंद्र सरकार जो जनगणना करती है, उसमें जनसंख्या और शिक्षा, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति, धर्म, भाषा, विवाह, प्रजनन क्षमता, अक्षमता, पेशा और व्यक्तियों के प्रवास जैसे विभिन्न सामाजिक आर्थिक मापदंडों पर डेटा जुटाया जाता है.


2018 में तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि जनगणना में केंद्र सरकार पिछड़ी जातियों का भी डेटा जुटाएगी. हालांकि, सरकार बाद में इससे पलट गई.


मामला सुप्रीम कोर्ट में, फिर नीतीश जल्दबाजी में क्यों?
देशभर में जाति जनगणना कराने की मांग वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है. 25 दिसंबर 2022 को चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीएस नरसिंह की पीठ ने केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय और अन्य को नोटिस जारी कर जवाब देने के लिए कहा है. 


सुप्रीम कोर्ट में मामले की चल रही सुनवाई के बीच नीतीश सरकार ने यह फैसला क्यों किया, इस पर सवाल उठ रहे हैं. आइए 2 प्वॉइंट्स में समझते हैं जल्दबाजी की वजह...


1. 2024 का चुनाव नजदीक- नीतीश सरकार सर्वे का डेटा 2024 के शुरू तक जारी करने की तैयारी में है. जाति जनगणना 2 फेज में होगा. दरअसल, 2024 के चुनाव में नीतीश और लालू की पार्टी गणना कराकर बीजेपी को ओबीसी आरक्षण पर घेरने की तैयारी में है. 


अभी तक ओबीसी जातियों को 27 फीसदी आरक्षण मिलता है, जबकि ओबीसी की अनुमानित आबादी 40 फीसदी से ज्यादा है. 


2. लंबे वक्त से उठ रही है मांग- बिहार में जाति जनगणना की मांग लंबे वक्त से उठ रही है. 2020 में सभी दलों ने मिलकर इसे विधानसभा में भी पास किया, लेकिन केंद्र की वजह से अटक गया. 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी की स्थिति काफी खराब हो गई. इसके पीछे ओबीसी वोटबैंक का जेडीयू से छिटकने को वजह माना गया. 


जाति गणना अगर और टलती तो ओबीसी की जातियों में इससे नाराजगी बढ़ती, जिसे नीतीश सरकार रिस्क नहीं लेना चाहती है. 


गरीब राज्य बिहार के लिए नीतीश का यह दांव कितना सही?
श्रीलंका आर्थिक संकट के बाद रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने एक रिपोर्ट जारी की. रिपोर्ट में कहा गया कि बिहार उन टॉप-10 राज्यों में शामिल है, जिस पर सबसे अधिक कर्ज है. रिपोर्ट में कहा गया कि 2022-23 में बिहार का लोक ऋण 40756 करोड़ रुपए है. 2022-23 में राज्य का GSDP 38% से ज्यादा है.


नीति आयोग ने भी बिहार को सबसे पिछड़ा राज्य घोषित किया था. ऐसे में सवाल उठता है कि बिहार जैसे गरीब और पिछड़ा राज्य में जाति का डेटा जुटाकर नीतीश सरकार क्या करेगी? इस डेटा के आ जाने से राज्य में क्या बदलाव आएंगे?


1. संख्या के बारे में सटीक जानकारी मिलेगी- एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट में सांख्यिकी विभाग के प्रोफेसर सुधीर कुमार नीतीश के इस फैसले को सही ठहराते हैं. संसद टीवी से बात करते हुए सुधीर कुमार कहते हैं कि 1931 के बाद समानुपात में सभी वर्गों की जनसंख्या में बढ़ोतरी नहीं हुई. बिहार में जाति जनगणना अगर होती है, तो उससे सही संख्या के बारे में जानकारी मिल सकेगी.


2. जातियों के बीच गतिरोध बढ़ सकती है- इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन स्टडी में डेटा विभाग के प्रमुख डॉ एसके सिंह इस दांव से जातियों में गतिरोध बढ़ने की आशंका जताते हैं. सिंह के मुताबिक डेटा जुटाना और जनसंख्या करने में फर्क है. राज्य में इस फैसले के बाद जातियों के बीच गतिरोध बढ़ सकती है.


3. अन्य मुद्दों पर सरकार को राहत- जाति गणना के बाद ओबीसी आरक्षण की मांग तेज होने के आसार हैं. इससे सरकार को अन्य मुद्दे लॉ एंड ऑर्डर, शराबबंदी जैसे मुद्दे पर राहत मिल सकती है.


2009 के आसपास बिहार में इसी तरह विशेष राज्य का मुद्दा हावी था. इसका फायदा भी उस वक्त नीतीश कुमार को मिला था. बाद में यह मुद्दा ठंडे बस्ते में चला गया.