समस्तीपुर: जिले के भिरहा गांव में ऐतिहासिक होली मनाई जाती है जहां ब्रज के तर्ज पर लोग होली खेलते हैं. राष्ट्रकवि दिनकर ने इसे बिहार का वृंदावन कहा था जहां आज भी ब्रज के तर्ज पर रंगों का ये त्योहार मनाने की परंपरा जिंदा है. होली के कुछ महीने पहले से ही गांव में उत्सवी माहौल कायम रहता है. गांव के तीनों टोला एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में सजावट के साथ साथ अच्छे से अच्छा बैंड पार्टी और नर्तकी लाने का प्रयास करते हैं.


नर्तकियों का भी होता डांस


होली से एक दिन पूर्व होलिका दहन की संध्या से ही पूरब, पश्चिम और उत्तर टोले में निर्धारित स्थानों पर अलग-अलग नर्तकियों का नृत्य आयोजित होता है. इस गांव में जगह-जगह देश के बड़े-बड़े कलाकारों के द्वारा महफिल लगाई जाती है.


मध्य रात्रि के बाद गाजे बाजे के साथ तीनों टोले से निकला जुलूस गांव के उच्च विद्यालय के प्रांगण में पहुंचता है, जहां विशाल होलिका दहन के बाद पटना और बनारस, राजस्थान, बेंगलुरु और दिल्ली से आये तीनों बैंड पार्टी के बीच होती घंटो प्रतियोगिता होती है. उसमें प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले को किमती पुरस्कार देकर सम्मानित किया जाता है.


रात में जमती महफिल


इस दौरान क्षेत्र के हजारों लोग उपस्थित रहते हैं. चमचमाते रोलेक्स के बीच संपूर्ण गांव पूरी रात दुधिया रोशनी से जगमग रहता है. होली के दिन भी इस भिरहा गांव में बड़े-बड़े कलाकारों द्वारा महफिल दर्जनों जगह लगाया जाता है. होली के गीतों पर बूढ़े, जवान और बच्चे रंग गुलाल, अबीर के साथ झूम झूम कर महफिल का आनंद लेते हैं. महफिल का आनंद लेने के बाद गांव के तीनों टोली में दोपहर बाद वहां स्थित फगुआ पोखर पहुंचते हैं.


फगुआ पोखर में गुलाल लगाने पहुंचते हजारों लोग


फगुआ पोखर नहाने वाली नहीं सिर्फ रंग की होली खेलने वाला बुखार है इसलिए गांव के लोग उसे फगुआ पोखर कहते हैं. होली के दिन हजारों की संख्या में यहां लोग पहुंचते हैं, जहां रंगो की पिचकारी चलती जिससे पोखर का पानी भी गुलाबी रंग में बदल जाता है. भिरहा की होली न सिर्फ मिथिलांचल में बल्कि देश स्तर पर इसकी एक अलग पहचान है.


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