बिहार में नीतीश कुमार के साथ छोड़ने के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी कुनबा जोड़ने में जुटी है. उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी के बाद चिराग पासवान की एंट्री भी एनडीए में लगभग फाइनल हो गई है. 18 जुलाई को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की बैठक में चिराग शामिल होंगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बैठक की अध्यक्षता करेंगे.
सबकुछ ठीक रहा तो बिहार में पहली बार बीजेपी लोकसभा चुनाव में 5 पार्टियों के साथ मिलकर लड़ेगी. इनमें लोजपा (आर), रालोजपा, हम (से) और आरएलजेडी प्रमुख है. बिहार में एनडीए का मुकाबला विपक्षी महागठबंधन से है, जिसका नेतृत्व नीतीश और लालू कर रहे हैं.
महाराष्ट्र के बाद बिहार ही ऐसा राज्य है, जहां एनडीए के पास सबसे अधिक सहयोगी है. 2019 में बिहार में बीजेपी 2 दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी और 40 में से 39 सीटों पर जीतने में कामयाब रही थी.
ऐसे में दिल्ली से पटना तक यह चर्चा तेज है कि बिहार में बीजेपी इस बार अधिक सहयोगियों को क्यों जुटा रही है? इस स्टोरी में बिहार की सियासत, समीकरण और बीजेपी के रणनीति को विस्तार से जानने की कोशिश करते हैं...
बीजेपी के लिए बिहार महत्वपूर्ण क्यों, 3 वजहें...
1. विपक्षी एकता की मुहिम यहीं से शुरू हुई- जुलाई 2022 में बीजेपी से गठबंधन तोड़ने के बाद नीतीश कुमार ने विपक्षी एकता की मुहिम शुरू की. नीतीश के इस अभियान को खूब समर्थन भी मिला. देश की 15 पार्टियां एक साथ पटना में बैठक की और बीजेपी से लड़ने की बात कही.
विपक्षी मोर्चे में शामिल दल 14 राज्यों में काफी मजबूत स्थिति में है. इन दलों का वोट प्रतिशत भी 48% के आसपास है. विपक्षी एका का ही नतीजा है कि बीजेपी भी एनडीए की मीटिंग कर रही है. विपक्षी एकता के रणनीतिकार लालू यादव और नीतीश कुमार माने जा रहे हैं.
2. यहां पर लोकसभा की 40 सीटें- बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं. यहां से अधिक लोकसभा सीटें सिर्फ यूपी (80), महाराष्ट्र (48) और पश्चिम बंगाल (42) में है. तीन राज्यों से बिहार की सीमाएं लगती है, इनमें यूपी, झारखंड और बंगाल का नाम शामिल हैं.
यहां की 10 सीटें पर भी बिहारी वोटर्स जीत-हार तय करते हैं. यानी लोकसभा की कुल 50 सीटों पर बिहारी वोटरों का दबदबा है. गठबंधन पॉलिटिक्स के दौर में बीजेपी के लिए ये सीटें काफी अहम है. 2019 में एनडीए को बिहार में लोकसभा की 39 सीटों पर जीत मिली थी.
3. हिंदी पट्टी में मुद्दा तय करता है बिहार- आजादी के वक्त से ही देश की सियासत पर बिहार का दबदबा रहा है. इंदिरा की सरकार हटाने के वक्त भी बिहार ने ही मुद्दा तय किया था. अक्टूबर 2013 में पटना बम ब्लास्ट के बाद नरेंद्र मोदी के पक्ष में हवा बनी थी.
कुल मिलाकर कहे तो बिहार हिंदी बेल्ट में चुनावी मुद्दा तय करते में सबसे आगे रहता है. आगामी चुनाव के लिए विपक्ष ने जातीय जनगणना को एक बड़ा मुद्दा बनाया है. इसका शिगूफा भी बिहार से ही छोड़ा गया है.
4 नेता साथ आए, इनकी कितनी ताकत?
चिराग पासवान- पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान वर्तमान में जमुई सीट से सांसद हैं. 2021 तक संयुक्त लोजपा के अध्यक्ष थे, लेकिन उनके चाचा पशुपति पारस ने पार्टी तोड़ दी. पशुपति अभी मोदी कैबिनेट में मंत्री हैं.
लोजपा का बिहार में दलित सीटों पर मजबूत जनाधार है. 2014 और 2019 के चुनाव में लोजपा खुद बिहार की 6 सीटों पर जीत हासिल की. साथ ही 6-7 सीटों पर बीजेपी की मदद भी की. लोजपा का खगड़िया, मधेपुरा, वैशाली, मधुबनी, बेगूसराय, जमुई, समस्तीपुर और बेतिया में मजबूत जानाधार है.
वहीं क्षेत्रीय नेताओं के सहारे लोजपा ने जहानाबाद, बक्सर और सीवान में भी अपनी पैठ बनाई है. पार्टी टूटने के बाद से ही चिराग पासवान लोगों के बीच है. लोजपा का कोर वोटर पासवान है, जिसकी आबादी 4-5 प्रतिशत के आसपास है.
उपेंद्र कुशवाहा- हाल ही में पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने जेडीयू से अलग होकर राष्ट्रीय लोक जनता दल का गठन किया है. कुशवाहा ने तीसरी बार खुद की पार्टी बनाई है. 2019 और 2020 में करारी हार के बाद 2021 में उन्होंने अपनी पार्टी रालोसपा का जेडीयू में विलय कर दिया था.
बिहार में उपेंद्र कुशवाहा की गिनती कुशवाहा जाति के सबसे बड़े नेता के रूप में होती है. कुशवाहा अभी जेडीयू के कोर वोटर्स माने जाते हैं. उपेंद्र कुशवाहा बांका, मधुबनी, आरा, रोहतास और समस्तीपुर में मजबूत पकड़ रखते हैं.
2014 के चुनाव में कुशवाहा की पार्टी को 3 प्रतिशत वोट मिला था. उस समय भी कुशवाहा बीजेपी के साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरे थे.
जीतन राम मांझी- बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और हम (से) के मुखिया जीतन राम मांझी भी एनडीए के पाले में आ चुके हैं. जीतन राम मांझी 2015 में हम (से) का गठन किया था. इससे पहले वे 11 साल तक जेडीयू में रहे.
मांझी बिहार के गया जिले से आते हैं. उनका सियासी दबदबा गया, जमुई, औरंगाबाद और सासाराम में है. 2015 के चुनाव में मांझी की पार्टी को करीब 2 फीसदी वोट मिला था. जो पार्टी का रिकॉर्ड है.
2020 में हम को 0.89 फीसदी वोट मिले, जबकि 4 सीटों पर जीत हुई. मांझी बिहार में मुसहर समुदाय के सबसे बड़े नेता हैं. जीतन राम मांझी के मुताबिक बिहार में मुसहर जातियों की आबादी करीब 55 लाख हैं. हालांकि, सरकारी आंकड़े में यह 30 लाख से कम है.
नागमणि- शोषित इंकलाब पार्टी के मुखिया नागमणि भी अमित शाह से मुलाकात कर चुके हैं. नागमणि बिहार के बड़े पिछड़े नेता रहे बाबू जगदेव प्रसाद के बेटे हैं. जगदेव बाबू को बिहार का लेनिन भी कहा जाता है. उनका नारा 'सौ में 90 शोषित हैं, 90 भाग हमारा है' आज भी खूब पॉपुलर है.
नागमणि कुशवाहा बिरादरी से आते हैं. अटल बिहारी सरकार में मंत्री रहे नागमणि की पकड़ पाटलिपुत्रा, जहानाबाद और बिहार-झारखंड बॉर्डर से जुड़े इलाकों में है.
मुकेश सहनी पर भी बीजेपी की नजर
इन चार नेताओं के अलावा बीजेपी की नजर मुकेश सहनी पर भी है. सहनी 2020 में बीजेपी के साथ गठबंधन में आ चुके हैं. सहनी बिहार में निषाद समुदाय के बड़े नेता है. मुकेश सहनी के मुताबिक बिहार में निषाद समुदाय के सभी उपजातियों की आबादी 14 प्रतिशत के आसपास है.
मुकेश सहनी की पकड़ मधुबनी, खगड़िया, मुजफ्फरपुर, दरभंगा और समस्तीपुर में है. 2019 में मधुबनी, मुजफ्फरपुर और खगड़िया में सहनी की पार्टी चुनाव लड़ भी चुकी है.
बिहार में कुनबा क्यों जोड़ने का मकसद क्या?
नीतीश को होम ग्राउंड पर ही उलझाए रखने की रणनीति- 2014 में छोटी पार्टियों को जोड़कर बीजेपी ने 31 सीटों पर जीत हासिल की थी. इस बार भी छोटी पार्टियों को बीजेपी जोड़ रही है. इसका पहला मकसद नीतीश कुमार को होमग्राउंड पर ही उलझाए रखने की है.
विपक्षी एकता में नीतीश कुमार के राष्ट्रीय संयोजक बनने की अटकलें हैं. नाम पर बेंगलुरु की बैठक में मुहर लग सकती है. बात बिहार की करें तो यहां भले जेडीयू-आरजेडी और कांग्रेस का मजबूत जोड़ है, लेकिन लोकसभा चुनाव का मुद्दा अलग होता है.
नीतीश कुमार भी यह जानते हैं, इसलिए बीजेपी की रणनीति है कि छोटी पार्टियों का मजबूत गठबंधन खड़ा कर दिया जाए, जिससे गठबंधन पॉलिटिक्स के माहिर खिलाड़ी नीतीश को मात दिया जा सके. नीतीश अगर इसकी काट खोजेंगे तो राष्ट्रीय स्तर पर कम समय देंगे, जिसका फायदा सीधे बीजेपी को मिलेगा.
ओबीसी विरोधी छवि तोड़ने में मददगार- बिहार में नीतीश कुमार की महागठबंधन सरकार जाति सर्वे का आदेश दे चुकी है. माना जा रहा है कि इस सर्वे के बाद ओबीसी और दलित समुदाय की ओर से हिस्सेदारी बढ़ाने की मांग तेज हो सकती है. इसी डर से केंद्र जाति जनगणना नहीं करवा रही है.
विपक्षी एकता की मीटिंग में भी जातीय जनगणना के मुद्दे को पुरजोर तरीके से उठाने की बात पर सहमति बन चुकी है. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि बीजेपी के कमंडल पॉलिटिक्स के जवाब में विपक्ष का यह मंडल-2 है.
बिहार समेत देश में पिछड़ों की हिस्सेदारी की मांग अगर तेज होती है, तो ऐसे में महागठबंधन बीजेपी की छवि ओबीसी विरोधी बनाने की कोशिश करेगी. इसी रणनीति को अचूक करने के लिए बीजेपी छोटे-छोटे ओबीसी नेताओं को साथ ला रही है.