दरभंगा: बिहार का यह जिला अपने समृद्ध अतीत और प्रसिद्ध दरभंगा राजघराने के लिए जाना जाता है. अपनी सांस्कृतिक और शाब्दिक परंपराओं के लिए भी दरभंगा मशहूर है और शहर बिहार की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में लोकप्रिय है. यहां का इतिहास रामायण और महाभारत काल से जुड़ा है, जिसका जिक्र भारतीय पौराणिक महाकाव्यों में भी है.


देश के रजवाड़ों में दरभंगा राज का हमेशा अलग स्थान रहा है. ये रियासत बिहार के मिथिला और बंगाल के कुछ इलाकों में कई किलोमीटर के दायरे तक फैला था. रियासत का मुख्यालय दरभंगा शहर था. ब्रिटिश इंडिया में इस रियासत का जलवा अंग्रेज भी मानते थे. इस रियासत के आखिरी महाराज कामेश्वर सिंह तो अपनी शान-शौकत के लिए पूरी दुनिया में विख्यात थे. इससे प्रभावित होकर अंग्रेजों ने उन्हें महाराजाधिराज की उपाधि दी थी.


महाराज लक्ष्मेश्वर सिंह ने 146 साल पहले शुरू की निजी ट्रेन


आज से 146 साल पहले दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह के जमाने में उनके किले के अंदर तक रेल लाइनें बिछी थी और ट्रेनें आती-जाती थीं. दरअसल, 1874 में दरभंगा के महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने तिरहुत रेलवे की शुरूआत की थी. उस वक्त उत्तर बिहार में भीषण अकाल पड़ा था. तब राहत कार्य के लिए समस्तीपुर के बाजितपुर से दरभंगा तक के लिए पहली ट्रेन मालगाड़ी चली थी.


रेलवे का जाल बिछाने में महाराज का बड़ा योगदान


महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने ही उत्तर बिहार में रेल लाइन बिछाने के लिए अपनी कंपनी बनाई और अंग्रेजों के साथ एक समझौता किया. इसके लिए अपनी जमीन तक उन्होंने तत्कालीन रेलवे कंपनी को मुफ्त में दे दी और एक हज़ार मज़दूरों ने रिकॉर्ड समय में मोकामा से लेकर दरभंगा तक की रेल लाइन बिछाई. उत्तर बिहार और नेपाल सीमा तक रेलवे का जाल बिछाने में महाराज का बड़ा योगदान है. उनकी कंपनी तिरहुत रेलवे ने 1875 से लेकर 1912 तक बिहार में कई रेल लाइनों की शुरुआत की इनमें प्रमुख दरभंगा-सीतामढ़ी, सकरी-जयनगर, समस्तीपुर-खगड़िया, समस्तीपुर-दलसिंहसराय, समस्तीपुर-मुजफ्फरपुर, मुजफ्फरपुर-मोतिहारी, मोतिहारी-बेतिया, हाजीपुर-बछवाड़ा, नरकटियागंज-बगहा लाइनें प्रमुख हैं इसके अलावे भी विभिन्न जगहों से अनेक ट्रेने चलाई गई.


महाराजा ने चलाई थी 'पैलेस ऑन व्हील' नाम से राजसी ट्रेन


इसके अलावा महाराजा ने अपने लिए पैलेस ऑन व्हील नाम से भी एक ट्रेन चलाई थी, जिसमें राजसी सुविधाएं मौजूद थीं. इस ट्रेन में चांदी से मढ़ी सीटें और पलंग थे. इसमें देश-विदेश की कई हस्तियों ने दरभंगा तक का सफर किया था. देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, कई रियासतों के राजा-महाराजा और अनेक अंग्रेज अधिकारी शामिल थे. उस वक्त महात्मा गांधी को छोड़ भारत एवं विदेशों के हर बड़ी हस्ती ने इस शाही ट्रेन के सफर का लुत्फ उठाया था।चूंकि महात्मा गांधी थर्ड क्लास में ही सफर करते थे और इस ट्रेन में राजशाही व्यवस्था थी.


दरभंगा के आखिरी महाराजा कामेश्वर सिंह के 1962 में निधन के पहले तक ट्रेन नरगौना टर्मिनल पर आती-जाती थी, जिसे आज नरगौना पैलेस के नाम से जाना जाता है. 1972 में दरभंगा में ललित नारायण मिथिला विवि की शुरूआत हुई. जिसके कुछ साल बाद बाद नरगौना महल विवि के अधिकार क्षेत्र में आ गया. तब से ही इस रेलवे प्लेटफार्म के बुरे दौर की शुरुआत हुई. सारी रेल लाईने उखाड़ दी गयी. जो कभी वैभवशाली प्लेटफॉर्म हुआ करता था, आज उसका अस्तित्व मिटा दिया गया.


रेल लाइन बिछाने के लिए मुफ्त में दी जमीन


दरभंगा राज का बिहार में रेलवे के विकास में बहुत बड़ा योगदान है. महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने उत्तर बिहार में रेल लाइनें बिछाने के लिए अपनी जमीन मुफ्त में दे दी थी, उनके पैसों से एक हजार मजदूरों ने मिलकर रिकॉर्ड समय में मोकामा से लेकर दरभंगा तक की रेल लाइन बिछाई.


वक्त के साथ दरभंगा महाराज के योगदान को भुला दिया गया था. लेकिन पिछले कुछ सालों में रेलवे ने दरभंगा महाराज की यादों और धरोहरों को संजोने में दिलचस्पी दिखाई और इंजन को लोहट चीनी मिल से लाकर फिर से सजा दरभंगा रेलवे स्टेशन के बाहर लगाया है. उम्मीद है कि विभाग के जरिए इस विरासत को बचाने की कोशिश होगी, जिससे बिहार की आने वाली पीढ़ियां भी इस गौरवशाली इतिहास को जान सकेंगी.