समस्तीपुर: परंपराओं का निर्वहन उल्लासपूर्वक किया जाए तो वह उत्सव बन जाता है. ऐसा ही धमौन की ‘छतरी होली’ का उत्सव है जहां एक बड़ी छतरी के नीचे दर्जनों लोग खड़े होकर एकरंग हो जाते हैं. बाबा निरंजन स्थान के लिए विख्यात पटोरी के धमौन की होली बरसाने और वृंदावन की याद दिलाते हैं. यहां जाति, धर्म व संप्रदाय से ऊपर उठकर लोग इसके साक्षी बनते हैं.


दो दर्जन लोग छतरी के नीचे रहते हैं


बताया जाता है कि बांस की छतरी इतनी बड़ी होती है कि इसके नीचे दो दर्जन लोग खड़े होकर होली का गीत गा सकते हैं. गांव में जितनी टोली, उतनी छतरी. सबसे अच्छी छतरी को लेकर प्रतिस्पर्धा भी होती है. शाहपुर पटोरी अनुमंडल के धमौन का नाम धौम्य ऋषि के नाम पर पड़ा है. छतरी होली की परंपरा भी प्राचीन काल से है. करीब एक महीना पहले से चलने वाली तैयारी का होली के दिन प्रदर्शन होता है. एक छतरी बनाने में कम से कम पांच हजार का खर्च आता है. आकर्षक बनाने के लिए रंगीन कागज, थर्माकोल, घंटी और डिजाइनर पेपर का इस्तेमाल होता है.


कुलदेवता को चढ़ाते गुलाल


इसको लेकर गांव के कुछ बुजुर्गों का कहना है कि यह होली लगभग सौ वर्ष पूर्व से मनाई जाती रही है. कुछ का यह भी कहना है कि इस प्रकार की होली 16वीं शताब्दी से मनाई जा रही है, लेकिन छतरियों को नया रूप लगभग 1930 में दिया गया. उस समय पहली सुसज्जित छतरी नबुदी राय के घर से निकाली गई थी. होली की सुबह छतरियों के साथ ग्रामीण अपने कुल देवता स्वामी निरंजन मंदिर में एकत्र होकर अबीर-गुलाल चढ़ाते हैं. वहां ‘धम्मर’ तथा ‘फाग’ गाते हैं.


वहीं मंदिर परिसर में छतरी मिलन होता है. छतरियों को कलाबाजी के साथ घुमाया जाता है. घंटियों से पूरा इलाका गूंज उठता है. इसके बाद यह शोभायात्रा के रूप में परिवर्तित होकर खाते-पीते घर-घर पहुंचती है. देर शाम झांकियां महादेव स्थान पहुंचती हैं. वहां लोग मध्य रात्रि के बाद चैता गाते हुए होली का समापन करते हैं.


लोगों की अनेक मान्यता


स्थानीय ग्रामीण और पूर्व विधायक अजय कुमार बुलगानिन बताते हैं कि ऐसी होली की शुरुआत उनके परिवार से हुई थी. अब इसका रूप और विस्तृत हो गया है. गांव के इंद्रदेव राय का कहना है कि ऐसी होली के आयोजन से इष्ट देव प्रसन्न होते हैं. गांव के अधिवक्ता शंकर राय का कहना है कि सरकार को इस होली के संरक्षण व लोकप्रिय बनाने के लिए सकारात्मक कदम उठाना चाहिए.


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