बांका: देश को आजादी कितनी कुर्बानियों के बाद मिली है शायद ही नई पीढ़ी के लोगों को मालूम हो. अगर स्वतंत्रता सेनानियों की बात करें तो हम इतिहास की पुस्तकों, फिल्मों, गानों और सरकारी माध्यमों में चर्चित नामों को तो जानते हैं, लेकिन सैकड़ों क्रांतिवीरों की शहादत के बारे में हम अच्छे से नहीं जानते हैं जो आज आजादी के 76 साल बाद भी कहीं गुमनामी के अंधेरे में खोए हुए हैं. उन्हें या तो भुला दिया गया है या फिर वे हाशिए पर डाल दिए गए. कई सेनानियों का तो कुछ अता पता भी नहीं मालूम, क्योंकि उनके बारे में कभी कुछ जानने और बताने की कोशिश ही नहीं की गई.
हम सभी पंजाब के जलियांवाला बाग गोलीकांड की घटना को तो जानते हैं, लेकिन शायद ही किसी को पता हो भी या न हो कि आजादी की लड़ाई में बिहार के तारापुर का गोलीकांड कितनी महत्वपूर्ण घटना थी. 15 फरवरी 1932 के इस गोलीकांड को बांका के शंभूगंज प्रखंड क्षेत्र के छत्रहार और रामचुआ गांव के लोग आज भी नहीं भूले हैं, जब गुलाम भारत में तारापुर थाना पर तिरंगा फहराने के दौरान अंग्रेजों की गोलियों से आजादी के 34 दीवाने भारत माता की जय और वंदे मातरम् के जयकारे लगाने के साथ खुशी-खुशी शहीद हो गए थे, जिसमें दो वीर सपूत बांका जिले के शंभूगंज प्रखंड के शामिल थे.
गोली चलने के बाद भी डटे थे वीर सपूत
इस घटना को लेकर सौ वर्षीय समाजवादी नेता सह देश के आजादी आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के कभी हाथ नहीं लगने वाले धीरेंद्र यादव बताते हैं कि गुलाम भारत में तारापुर गोलीकांड पंजाब के जलियांवाला बाग नरसंहार से भी बड़ी घटना थी. उन्होंने बताया कि 1931 के गांधी इर्विन समझौते को रद्द किए जाने के विरोध में कांग्रेस द्वारा सरकारी भवन से यूनियन जैक उतारकर तिरंगा फहराने की पहल की गई थी. इसको लेकर शंभूगंज प्रखंड के खौजड़ी पहाड़ में तारापुर थाना पर झंडा फहराने की योजना बनी थी. सैकड़ों लोगों ने धावक दल में शामिल छत्रहार गांव के विश्वनाथ सिंह और रामचुआ गांव के महिपाल सिंह को अंग्रेजों के थाने पर तिरंगा झंडा फहराने का जिम्मा दिया था. इस दौरान उनके हौसला अफजाई करने के लिए जनता खड़ी होकर भारत माता की जय, वंदे मातरम आदि का जयघोष कर रहे थे. भारत मां के वीर बेटों के ऊपर अंग्रेजों कलक्टर ई. ओली एवं एसपी डब्ल्यू फ्लैग के नेतृत्व में गोलियां चली थी. गोली चल रही थी, लेकिन कोई कहीं नहीं भाग रहे थे, सभी डटे हुए थे.
15 फरवरी 1932 दिन सोमवार की दोपहर शंभूगंज प्रखंड अंतर्गत खौजड़ी पहाड़ की गुफाओं से सैकड़ों आजादी के दीवाने भारत माता की जय के नारे लगाते हुए मुंगेर जिले के तारापुर थाने पर तिरंगा लहराने निकल पड़े. उन अमर सेनानियों ने हाथों में राष्ट्रीय तिरंगा झंडा और अपने होठों पर वंदे मातरम्, भारत माता की जय के नारों की गूंज लिए हंसते-हंसते हुए गोलियां खाई थीं. इस दौरान मातृभूमि की रक्षा के लिए जान लेने वाले और जान देने वाले दोनों तरह के सेनानियों ने अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर रखा था. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े गोलीकांड में देशभक्त पहले से लाठी-गोली खाने को तैयार हो कर घर से निकले थे. वहीं 34 सपूतों की शहादत के बाद तारापुर थाना भवन पर तिरंगा लहराया गया.
मात्र 13 शहीदों की ही हो पाई थी पहचान
इस गोलीकांड की घटना के बाद अंग्रेजों ने शहीदों का शव वाहनों में लाद कर सुल्तानगंज की गंगा नदी में बहा दिया था. इस नरसंहार में शहीद हुए 34 सपूतों में से केवल 13 की ही पहचान हो पाई थी. 21 शहीदों के बारे में लोग आज भी अनजान हैं कि वे कौन थे और कहां के थे, लेकिन उनकी शहादत की निशानी अभी भी तारापुर शहीद स्मारक स्थल पर लगे शिलापट पर अंकित है.
शहीदों में बांका जिले के शंभूगंज प्रखंड अंतर्गत छत्रहार गांव के विश्वनाथ सिंह, रामचुआ गांव के महिपाल सिंह, असरगंज के शीतल, तारापुर के सुकुल सोनार, संता पासी, सतझरिया गांव के झोंटी झा, बिहमा गांव के सिंहेश्वर राजहंस, धनपुरा गांव के बदरी मंडल, लौढ़िया गांव के वसंत धानुक, पड़भाड़ा गांव के रामेश्वर मंडल, महेशपुर गांव के गैबी सिंह, कष्टिकरी गांव के अशर्फी मंडल तथा चोरगांव के चंडी महतो थे, जबकि 31 अज्ञात शव भी मिले थे, जिनकी पहचान नहीं हो पाई थी. कुछ शव तो गंगा की गोद में समा गए थे.
बता दें कि इस घटना को लेकर तत्कालीन बिहार, उड़ीसा विधान परिषद में 18 फरवरी 1932 को सच्चिदानंद सिन्हा ने अल्प सूचित प्रश्न पूछा था. मुख्य सचिव ने घटना को स्वीकार किया था. ब्रिटिश पार्लियामेंट में भारत के सचिव सर सैमुअल होर ने भी इस घटना की जानकारी दी थी. घटना के संबंध में अन्य प्रमाण के तौर पर पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे. उन्होंने अपनी आत्मकथा पृष्ठ संख्या 366 पर इस घटना का उल्लेख किया है. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी 1942 में तारापुर की एक यात्रा पर 34 शहीदों के बलिदान का उल्लेख किया था.
क्रांतिकारी लेखक मनमथनाथ गुप्त, डीसी डिंकर, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, रणवीर सिंह वीर, चतर्भुज सिंह भ्रमर, डॉ. देवेंद्र प्रसाद सिंह, पूर्व विधायक जयमंगल सिंह शास्त्री, काली किंकर दत्ता, चंदर सिंह राकेश ने भी इस घटना को अपनी लेखनी में पिरोया है. चार अप्रैल 1932 को दिल्ली के अखिल भारतीय कांग्रेस महाधिवेशन में तारापुर के अमर शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की गई थी. 15 फरवरी को पूरे देशभर में तारापुर दिवस प्रतिवर्ष मानाने का निर्णय लिया गया. बताया जाता है कि तारापुर शहीद दिवस मनाने का सिलसिला 1947 तक जारी रहा, लेकिन आजादी के बाद इसे भुला दिया गया.
पीएम मोदी ने 'मन की बात' में की थी चर्चा
बता दें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 जनवरी 2021 को अपने मन की बात कार्यक्रम में भी तारापुर के बलिदानियों की चर्चा कर चुके हैं. तारापुर थाना परिसर में बने स्मारक स्थल पर हर वर्ष 15 फरवरी को इलाके के लोग पहुंचकर देश के लिए बलिदान होने वाले वीर क्रांतिकारियों को अपना श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं. प्रधानमंत्री की चर्चा के बाद बिहार सरकार ने इसे एतिहासिक स्थल के रूप में विकसित करने का निर्णय लिया और तारापुर थाना के सामने शहीद स्मारक पार्क में 34 बलिदानों की प्रतिमा स्थापित की गई और ऐतिहासिक थाना भवन को स्मारक रूप दिया गया है. यहां पहचान किए गए 13 शहीदों की आदमकद प्रतिमा लगाई गई है और शेष 21 अज्ञात की म्यूरल यानी भित्ति या दीवार भी लगाई गई है.
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