पटना: लोकसभा चुनाव 2024 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) और लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad Yadav) की जोड़ी अगर उस वक्त तक साथ रह गई तो बिहार में धमाका कर सकती है. यहां हम जेडीयू और आरजेडी के साथ की बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि सियासी गलियारे में बयानों के साथ-साथ कई तरह की अटकलें भी लगाई जा रही हैं. ऐसे में पहले से तय मान लेना भी बहुत आसान नहीं है. आगे बढ़ते हैं, इस लोकसभा चुनाव में बिहार इसलिए सबकी नजर पर है क्योंकि नीतीश कुमार विपक्षी दल को एकजुट करने में लगे हैं. महागठबंधन सरकार (Mahagathbandhan Sarkar) के पास दो ऐसे हथियार हैं जिससे वह चुनौती देगी. अगर जोड़ी कामयाब हो गई तो बीजेपी आउट हो जाएगी. भारतीय जनता पार्टी को झटका लग सकता है.
बिहार में जातियों के बल पर ही राजनीति होती रही है. दो हथियार में महागठबंधन के पास यह पहला हथियार है जिस पर कब्जा करने के लिए दल के नेता हर चाल चलेंगे. अगर दूसरे हथियार की बात करें तो वो है बिहार में हो रही जाति आधारित गणना. इन्हीं दोनों को आधार बनाते हुए प्लान तैयार होगा. जाति आधारित जनगणना का सरकार फायदा गिनाएगी और इसे लोकसभा चुनाव के दौरान लोगों के बीच पहली प्राथमिकता पर रखेगी.
31 मई के बाद एक्शन मोड!
बिहार में जाति आधारित गणना 31 मई तक समाप्त हो जाएगी. उम्मीद है कि इसके बाद महागठबंधन सरकार बिहार में एक्शन मोड में दिखेगी. पिछले 32 सालों से बिहार में पिछड़ी जाति का शासन चल रहा है. चाहे लालू प्रसाद यादव हों या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, दोनों पिछड़े समाज से आते हैं. बिहार में लगभग 52 फीसद पिछड़ों की आबादी है. अभी देश में 49.5 फीसद आरक्षण है जिसमें पिछड़ी जाति को 27, अति पिछड़ी जाति को 15 और अनुसूचित जनजाति को 7.5 फीसद आरक्षण दिया गया है. आरक्षण की व्यवस्था इसके अलावा आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के लोगों को भी है. इन्हें 10 फीसद आरक्षण मिल रहा है.
बिहार में जातीय जनगणना पूरी होती है तो निश्चित तौर पर पिछड़ा और अति पिछड़ा समाज मिलाकर इसका आंकड़ा 52 फीसद से अधिक हो सकता है. बिहार में जातीय गणना होने के बाद नीतीश और लालू की जोड़ी केंद्र सरकार पर आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग करेगी. हो सकता है कि 40 से 45 फीसद पिछड़ी जाति के लिए आरक्षण की मांग करे जो केंद्र सरकार के लिए मुसीबत बन सकती है. क्योंकि सरकार को 50 फीसद से ज्यादा आरक्षण देने का प्रावधान नहीं है और 50 फीसद आरक्षण में अति पिछड़ा, अनुसूचित जाति और पिछड़ा समाज सभी आ जाते हैं. ऐसे में अकेले सिर्फ पिछड़ा समाज को आरक्षण की सीमा बढ़ाना सरकार के लिए मुश्किल होगी और इसका खामियाजा बीजेपी को चुनाव में उठाना पड़ सकता है.
क्या कहते हैं राजनीतिक जानकार?
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक जानकार अरुण पांडेय ने एबीपी न्यूज़ से कहा कि यह सही बात है कि जातीय जनगणना से महागठबंधन को फायदा हो सकता है. पिछड़ा समाज को अभी 27 फीसद आरक्षण है. इसको बढ़ाने की मांग पर राजनीति हो सकती है लेकिन इसका असर कितना पड़ेगा यह कहना मुश्किल है क्योंकि पिछड़े समाज में लगभग 17 फीसद के आसपास यादव हैं. इसके बाद कई जातियां हैं जो लालू के शासनकाल के बाद से यादव समाज को पसंद नहीं करती हैं. ऐसे में अगर पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों की गोलबंदी हुई तो बीजेपी को नुकसान पहुंच सकता है.
अरुण पांडेय ने कहा कि बीजेपी को बहुत ज्यादा नुकसान नहीं भी हो सकता है क्योंकि विशेष राज्य के दर्जे की मांग कई सालों से आरजेडी और जेडीयू करती रही है. इसका असर न तो 2014 के लोकसभा चुनाव में दिखा और न ही 2019 के लोकसभा चुनाव में दिखा. ऐसे में उनका आरक्षण बढ़ाने का मुद्दा बहुत कारगर भी नहीं हो सकता है. जिस तरह से उपेंद्र कुशवाहा या अन्य छोटी-छोटी जातियों की पार्टियां महागठबंधन से नाराज है उसका फायदा बीजेपी को मिल सकता है.
बता दें कि बिहार में लगभग 27-28 फीसद पिछड़ी जाति के लोग हैं. इसमें यादव, कुर्मी, कुशवाहा जाति के हैं. इसमें सबसे ज्यादा संख्या लगभग 17 फीसद यादव का है. कुशवाहा 8 तो कुर्मी लगभग 4 फीसद है. वहीं अति पिछड़ा जाति में भी बिहार में लगभग 26 फीसद के आसपास है. इसमें लोहार, कहार, कुम्हार, तांती, पटवा, नोनिया, धानुक आदि हैं. अगर ये जातियां एकजुट रहीं तो महागठबंधन को फायदा हो सकता है.
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