बांका: महाशिवरात्रि को लेकर सभी शिव मंदिरों की रौनक बढ़ जाती है. खासकर प्राचीन मंदिरों की महत्ता और ज्यादा बढ़ जाती है. ऐसे ही मंदिरों में से एक है प्रदेश के बांका जिले का धनकुंडनाथ शिव मंदिर, जो भागलपुर-बांका जिला की सीमा पर अवस्थित सन्हौला-जगदीशपुर मुख्य सड़क मार्ग के उत्तर दिशा में स्थित है. यह मंदिर जिले के धोरैया प्रखंड सह अंचल में पड़ता है. वर्तमान में धनकुंडनाथ धाम भागलपुर जिले के जगदीशपुर, गोराडीह, सबौर, सन्हौला एवं बांका जिले के धोरैया एवं रजौन प्रखंड के केंद्र बिंदु पर अवस्थित है.
प्राचीन मंदिर के अब भी प्रमाण हैं मौजूद
इस मंदिर का इतिहास काफी प्राचीन है. पवित्र सावन माह के साथ-साथ शिवरात्रि के उपलक्ष्य पर यहां एक पखवारे तक भव्य मेला का आयोजन होता है. कहा जाता है कि इस धनकुंड नाथ मंदिर में साक्षात भगवान शिव विराजते हैं. मंदिर के पश्चिम दिशा में लहुरिया ईंट से निर्मित पुरानी मंदिर के अवशेष अब भी मौजूद है, जिसे मुस्लिम शासक के शासनकाल में तोड़ने की बात बताई जाती है. इससे ये प्रमाणित होता है कि यह मंदिर काफी प्राचीन है.
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धनु-मनु के वंशज बनते हैं पुजारी
मंदिर के पुजारी मटरू बाबा ने बताया कि इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहां अब तक ब्राह्नण जाति के कोई पुजारी नहीं हुए, बल्कि सभी धनु-मनु के वंशज राजपूत जाति के पुजारी बनते आए हैं. मटरू बाबा ने बताया कि हमारे यहां पुजारियों को पंडा बोला जाता है. वर्तमान में मंदिर के पुजारी मटरू बाबा और उनके तीन पुत्र दयानंद, उमा तथा अटल सिंह हैं, जो पूजा करते और करवाते आ रहे हैं.
धनकुंड मंदिर का इतिहास
मटरू बाबा ने बताया कि धनकुंड शिव मंदिर का इतिहास देबैया गांव निवासी धनु और मनु नामक दो भाईयों से जुड़ा हुआ है. बताया जाता है कि धनु और मनु राजस्थान के जैसलमेर के राजा के सिपाही थे. उन्हें स्थानीय राजा लखन सिंह यहां लेकर आए थे. एक बार दोनों भाई इमली वन में भटक गए थे. इसी दौरान छोटे भाई मनु को बहुत जोर से भूख लगी थी. ऐसे में बड़े भाई धनु ने भातृत्व प्रेम के खातिर जंगल में कंद मूल और फल खोजना शुरू किया.
इसी दौरान एक पेड़ की जड़ से लिपटा हुआ कंद मूल फल दिखा. धनु ने उसे पाने के लिए प्रहार किया तो उससे रस के बदले खून की धार फटी. इसे देख दोनों भाई वहां से भाग निकले, लेकिन ईश्वर की महिमा ही कही जा सकती है कि वो दोनों जहां भी जाते कंद वहीं आकर खड़ा हो जाता. अंतत: हारकर दोनों भाई सो गए तो उन्होंने स्वप्न में देखा कि यहां पर भगवान शिव विराजमान हैं और पूजा करने की बात कह रहे हैं.
आंख खुलते ही धनु ने कुंड के करीब खुदाई की तो उस दौरान कंद के भीतर से एक शिवलिंग प्राप्त हुआ, इसके बाद इस स्थान का नाम धनकुंड पड़ा. धार्मिक दृष्टिकोण से यह जिले का प्रसिद्ध मंदिर है. यहां शिव मंदिर के सम्मुख माता पार्वती का मंदिर है, जिसे धनु और विंद समाज द्वारा बनाया गया है. शिव मंदिर के दक्षिण में एक शिवगंगा है. यहां धरती से अलग होकर गंगा निवास करती है. इसमें सालो भर जल विद्यमान रहता है. कभी इस तालाब के जल को लोग भोजन पकाने आदि में उपयोग करते थे. लेकिन अब शिवगंगा का जल काफी दूषित और लाल हो गया है.
जीर्णोद्धार में अनेक समाज ने की है मदद
मंदिर का वर्तमान स्वरूप व जीर्णोद्धार करने में चम्मुक के पांडेय सिंह, भागलपुर के दुर्गा प्रसाद मारवाड़ी, हरचण्डी के वैजनाथ भगत, विंद समाज, करहरिया के धानुक समाज आदि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. इस शिव मंदिर में वैसे तो सालो भर प्रत्येक सोमवार को शिवभक्तों का जमावड़ा लगा रहता है. मगर शिवरात्रि एवं सावन माह में शिवभक्तों का विशेष जमावड़ा लगता है. यहां प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि और सावन माह महीने में भव्य मेले भी लगते हैं.
दशहरा में भी लगता है भव्य मेला
इस मंदिर परिसर में कई अन्य देवी-देवताओं के छोटे-छोटे मंदिरों के साथ-साथ उत्तरी तालाब के तट पर मां दुर्गा की एक बड़ी मंदिर भी स्थापित की गई है, जहां प्रत्येक साल दशहरा में मां दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश और कार्तिक सहित भगवान शिव की प्रतिमा स्थापित कर नवरात्रि के नौ दिनों तक धूमधाम से पूजा-अर्चना के साथ-साथ भव्य मेले भी लगते हैं.
कभी यह क्षेत्र इमली के जंगलों से था घिरा
मंदिर के पुजारी मटरू बाबा ने बताया कि उनके पूर्वजों के अनुसार यह पवित्र स्थल पहले इमली जंगलों से घिरा हुआ करता था. धीरे-धीरे भगवान शिव की कृपा से यह स्थल काफी रमणीय बन गया. यहां बिहार के बांका, भागलपुर, नवगछिया आदि जिले सहित झारखंड राज्य के गोड्डा, साहिबगंज जिले के श्रद्धालु पहुंचकर भगवान शिव की पूजा-अर्चना करते हैं. मटरू बाबा ने आगे बताया कि इस मंदिर में जो भी भक्त सच्चे मन से पूजा-अर्चना करते हैं. उनकी हर मनोकामना फौजदारी बाबा धनकुण्ड नाथ अवश्य पूरा करते हैं.
पैदल चलकर आते थे श्रद्धालु
मटरू बाबा ने पुरानी यादों को ताजा करते हुए बताया कि धनकुंडनाथ शिव मंदिर में 2000 इस्वी के आस पास तक दूर-दराज से श्रद्धालु भक्तगण गंगा स्नान एवं पवित्र गंगाजल लेकर बैलगाड़ी, टमटम, बग्घी आदि पर सवार होकर यहां जलाभिषेक व पूजा अर्चना के लिए आते थे. वैसे अभी भी महाशिवरात्रि तथा सावन मास सहित अन्य शुभ अवसरों पर भक्तगण गंगाजल लेकर पैदल डाकबम या कांवड़ लेकर आते हैं.
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