सहरसा: जिला में कई गांव ऐसे हैं जहां किसान मखाना की खेती करते हैं. लेकिन सरकार के उदासीन रैवये की वजह से वे खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं. बाजार में 400-500 प्रति किलो बिकने वाले मखाने की खेती करने वाले किसान की स्थिति दयनीय है. बता दें कि मखाना तैयार करने में मखाना किसान को एड़ी-चोटी की मेहनत करनी पड़ती है. मखाना किसानों की मानें तो पोखर, खेत, नदी, चांप और चांचर में पहले मखाना की मार्च-अप्रेल के आस पास रोपनी करना पड़ती है.
रोपनी बाद लगभग अगस्त-सितंबर के समय मखाना को पानी से बुहारा जाता है. यही नहीं इस बीच खेत में पानी का अभाव नहीं हो इस पर पूरा ध्यान दिया जाता है. जब मखाना पानी से बुहार कर बाहर लाया जाता है, तब उसको सुखाना पड़ता है. फिर जब वह सुख जाता है तो उसको सोलह तरह के चलनी से अलग-अलग चाला जाता है.
किसान बताते हैं कि मखाना बनाने प्रक्रिया यहीं खत्म नहीं होती. जब मखाना सुख जाता है और अलग-अलग कटेगरी में तैयार हो जाता है, तब उनको आग के भाड़ी ताव पर भाड़ा जाता है. जब भाड़ा हुआ मखाना का गुड़िया तैयार हो जाता है, तब उसको लगभग 12 घंटे के लिए भाप युक्त माहौल में रखा जाता है. फिर उस मखाना के गुड़ी को आग की तपिस पर रखा जाता है और लगातार तीन कड़ाह पर भुना जाता है, तब मखाना तैयार होता है.
मखाना की खेती करने वाले रंजीत मुखिया ने बताया कि मखाना खेती के लिए हम किसानों को किसी तरह का सरकारी लाभ नहीं मिलता है. ऐसे में इस खेती को बेहतर तरीके से करें, इसके लिए जब बैंक ऋण लेने जाते है, तो बैंक बैरंग वापस लौटा देता है और कहता है इस उद्योग के लिए कोई सरकारी अनुदान नहीं है.
रंजीत ने बताया कि मजबूरी है क्या सकते हैं. इसलिए अपने स्तर से खेती करते हैं. कभी लाभ तो कभी नुकासन होते रहता है. जिस तरह मेहनत करते हैं. उस तरह फयाद कभी नहीं मिल पाता है. वहीं एक मखाना किसान ने बताया कि लागत के अनुसार आमदनी नहीं है. हम लोगों को कोई सरकार का नुमाइंदा देखने वाला नही है.
उन्होंने कहा, " केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार तक के नजर में मल्लाह जाति उपेक्षित है. मल्लाह की जिंदगी भगवान भरोसे है. हर वर्ष पानी से लेकर आग की तपिस तक मेहनत करो, लेकिन लाभ कुछ नहीं मिलेगा. मेहनत का अगर मेहनताना भी मिल जाए तो भगवान की कृपा होगी."