सुपौल: कोसी का इलाका जनबल का धनी माना जाता रहा है. यहां के श्रम पर दूसरे प्रदेश और महानगर के लोग इठलाते हैं. संभावनाओं की इस धरती पर हमेशा इच्छाशक्ति का अभाव देखा गया. शायद कभी नीति नियंताओं ने इस ओर पहल करने की कोशिश भी नहीं की. नतीजा रहा कि यहां का श्रम अन्य प्रदेशों में बिकता रहा. नित्य परदेश की ओर निकलने वाली गाड़ियों में कोसी के मजदूर लदे होते हैं. लेकिन जब-जब वोट देने का समय आता है, इन्हें याद किया जाता है और गांव बुलाने की इनकी पूरी व्यवस्था कर दी जाती है. फिर जब चुनाव खत्म तो बात खत्म. अगर सत्ता के कर्णधारों की मेहरबानी हुई तो कोसी के श्रम की पूंजी कारगर हो सकती है.
रोटी की तलाश में पलायन मजबूरी
कोसी के इलाके में लगभग 90 प्रतिशत लोग गांवों में रहते हैं और आजीविका का मुख्य साधन कृषि ही है. प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहे किसानों के लिए खेती एक समस्या है. कभी बाढ़ तो कभी सुखाड़ और कभी सभी किये कराये पर पानी फिर जाता है जब फसलों में दाना ही नहीं आता. सिचाई के संसाधनों की इलाके में प्रचूरता के बावजूद सिचाई सामान्य किसानों के लिए महंगी है. नतीजा है कि फसल की तैयारी होते-होते उत्पादन पर महाजनी भारी हो जाती है और ऐसे में मजदूरों के पास पलायन के सिवा कोई और चारा नहीं बचता.
इसी का नतीजा है कि मजदूरों के पलायन के मामले में कोसी का स्थान अन्य जगहों की तुलना में अव्वल है. धान की रोपनी, धान की कटनी, गेहूं की बुआई और कटनी के मौसम में स्थिति ये होती है कि दिल्ली की ओर रूख करने वाली गाड़ियों में आम आदमी के लिये चढ़ना भी आसान नहीं होता. स्टेशनों पर तिल रखने की जगह नहीं होती. गांवों की स्थिति ऐसी हो जाती है कि बच्चे और बुजुर्ग के अलावे मर्द ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते. महिलाएं गांव में ही मजदूरी से अपनी आजीविका चलाती हैं.
परदेश पर आश्रित हैं कोसी विस्थापित
एक तो पहले से ही इनलोगों का जीवन कष्टकारी रहा. लेकिन बरसात के बाद ये अपनी जमीन पर खेती किया करते थे. पशुपालन के सहारे भी इनकी रोजी चल जाती थी. लेकिन अब जब कोसी की मुख्य धारा ही इन्हीं गांवों से गुजर गई इन्हें रोटी के लाले पड़ गये. लोग रोजी की तलाश में दिल्ली पंजाब की ओर निकल गए. पर्व त्योहार के मौके पर ही ये गांव आते हैं. तभी न कोसी के इलाके से ही मजदूरों का पलायन सबसे अधिक आंका गया है. इन गांवों अथवा आश्रय स्थलों पर मर्द ढूंढने से नहीं मिलते.