भारत के कार्यपालिका में पीएम, सीएम और डीएम के पद को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है.1994 के दिसंबर के कड़ाके की ठंड में बिहार के गोपालगंज जिले के तत्कालीन डीएम जी कृष्णैया की हत्या ने सियासी तपिश बढ़ा दी थी. जी कृष्णैया की हत्या के बाद जब तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचे तो कृष्णैया की पत्नी उमा देवी का जवाब था- 'कृपया हमें अकेले छोड़ दें'


जी कृष्णैया की हत्या के बाद सरकार के खिलाफ ब्यूरोक्रेसी लामबंद होनी लगी. आरोपियों की धरपकड़ के लिए कई एनकाउंटर हुए. सियासी बवाल भी हुआ, लेकिन अब कृष्णैया हत्याकांड में सजायफ्ता आनंद मोहन को जेल से रिहा करने की कोशिश में सरकार जुटी है.


पटना में क्षत्रिय समाज के एक कार्यक्रम में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहुंचे तो वहां समर्थक आनंद मोहन को रिहा करने की मांग करने लगे. इस पर सीएम नीतीश ने कहा, 'सरकार उन्हें रिहा करने के प्रयास में लगी है. आप उनकी पत्नी से पूछ लीजिएगा कि हम क्या कोशिश कर रहे हैं'


आनंद मोहन की रिहाई पर नीतीश के बयान के बाद बिहार में फिर 1990 के दौर को लेकर चर्चा शुरू होने लगी है. आनंद मोहन कभी लालू के विकल्प माने जाते थे, लेकिन एक डीएम की हत्या ने उनकी राजनीतिक जमीन खिसका दी. 


कहानी को शुरू से शुरू करते हैं...


1. आनंद मोहन का सियासी उदय
राजपूत जाति से आने वाले आनंद मोहन की सियासी करियर 17 साल की उम्र में शुरू हो गई थी. इमरजेंसी के दौरान आनंद मोहन 2 साल तक जेल में भी रहे. इमरजेंसी खत्म हुई और मोरारजी देसाई भारत के प्रधानमंत्री बने. 


मोरारजी प्रधानमंत्री रहते बिहार दौरे पर आए. सरकार की नीतियों से नाराज आनंद मोहन ने मोरारजी देसाई को काला झंडा दिखा दिया. इस प्रकरण के बाद युवा आनंद मोहन की खूब चर्चा होने लगी. 1980 से 1990 तक आनंद मोहन राजनीति में संघर्ष करते रहे. इस दौरान वे कई चुनाव भी लड़े, लेकिन करारी हार का ही सामना करना पड़ा. 


साल 1990 में सहरसा के माहिषी सीट से जनत दल के टिकट से आनंद मोहन पहली बार विधायक बने. हालांकि, देश में मंडल कमीशन लागू होने के बाद उन्होंने जनता दल से अपना नाता तोड़ लिया और 1993 में खुद की पार्टी बना ली, जिसका नाम रखा बिहार पीपुल्स पार्टी. 


2. वैशाली का उपचुनाव और लालू यादव को चैलेंज
मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार में अगड़े-पिछड़े जातियों के बीच टकराव बढ़ने लगा और सरकार इसमें घी डाल रही थी. 1990 में जनता दल के भीतर रघुनाथ झा और रामसुंदर दास को पटखनी देकर लालू यादव मुख्यमंत्री बने थे. 


सरकार बनने के बाद थाने से लेकर जिले तक में एक जाति को बढ़ावा देने का उन पर आरोप लगे. पिछड़े, अल्पसंख्यक और दलितों की राजनीति कर लालू बिहार में अजेय बनते गए. 


इधर, उत्तर बिहार में जातीय संघर्ष बढ़ने की वजह से अगड़ों में आनंद मोहन भी खूब लोकप्रिय हो गए. दोनों के बीच 1994 में कड़ा मुकाबला देखने को मिला. जगह थी- लोकतंत्र की जननी वैशाली. 


तत्कालीन सांसद शिव शरण सिंह के निधन के बाद वैशाली सीट पर लोकसभा के उपचुनाव हुए. चुनाव में आनंद मोहन ने अपनी 26 साल की पत्नी लवली आनंद को मैदान में उतार दिया. लवली के मुकाबले जनता दल से किशोरी सिन्हा और कांग्रेस से उषा सिन्हा मैदान में थी.


लेकिन भूमिहार-राजपूत गठबंधन की वजह से लवली चुनाव जीत गई. वैशाली उपचुनाव परिणाम की घोषणा मुजफ्फरपुर के लंगट सिंह कॉलेज में की गई. जीत की घोषणा के बाद मुजफ्फरपुर से ही आनंद मोहन ने लालू को कुर्सी से हटाने का अलल-ऐलान कर दिया.


3. छोटन शुक्ला की हत्या और बृजबिहारी की एंट्री
1991 में वैशाली के विधायक हेमंत शाही की हत्या हो जाती है. इसके बाद बिहार में उपचुनाव की घोषणा होती है. उसी वक्त आनंद मोहन के आवास पर छापे पड़ते हैं. इंडिया टुडे मैगजीन से बात करते हुए उस वक्त लवली आनंद ने कहा था कि मेरे 3 महीने के बेटे को भी पुलिस ने नहीं बख्शा था. 


छापे के बाद आनंद वैशाली उपचुनाव में डेरा जमा लेते हैं और लवली आनंद खुद हेमंत शाही की पत्नी वीणा के लिए वोट मांगते हैं. इस चुनाव में वीणा शाही बड़ी मार्जिन से जीत हासिल करती हैं. वीणा की जीत के साथ ही आनंद को यहां एक सहयोगी भी मिलता है, जिसका नाम था छोटन शुक्ला.


इसके तुरंत बाद केसरिया के चुनाव में छोटन शुक्ला कैंडिडेट बने, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान उनकी हत्या हो गई. हत्या का आरोप लगा लालू यादव के करीबी बृजबिहारी प्रसाद पर. 




(Photo- Social Media)


छोटन शुक्ला की हत्या के बाद उत्तर बिहार के अगड़ी जाति उबल पड़े. छोटे भाई भुटकुन शुक्ला ने छोटन की हत्या का बदला लेने की कसम खाई और मुजफ्फरपुर में शव यात्रा निकालने का ऐलान कर दिया. 


4. डीएम जी कृष्णैया की हत्या और आनंद मोहन की घेराबंदी
मुजफ्फरपुर हाईवे से छोटन शुक्ला की शवयात्रा निकल रही थी. शवयात्रा में हजारों की भीड़ जुटी थी और सब सरकार के खिलाफ नारे लगा रहे थे. इसी दौरान हाईवे पर एक लालबत्ती की गाड़ी फंस गई. गाड़ी में बैठे थे गोपालगंज के तत्कालीन कलेक्टर जी कृष्णैया.


उन्मादी भीड़ ने लालबत्ती देखते ही गाड़ी पर हमला बोल दिया और जी कृष्णैया को पीट-पीटकर अधमड़ा कर दिया. कोर्ट में पेश किए गए चार्जशीट के मुताबिक घायल पड़े डीएम पर भुटकुन शुक्ला ने रिवॉल्वर से फायरिंग की, जिससे उनकी वहीं हत्या हो गई. 


इस मामले में आनंद मोहन समेत 7 लोगों को आरोपी बनाया गया. आनंद मोहन गिरफ्तार कर लिए गए. हालांकि, 1996 के लोकसभा चुनाव में आनंद मोहन ने शिवहर सीट से जीत दर्ज की, लेकिन जेल में होने की वजह से आनंद मोहन का सियासी रसूख घटता गया. लालू की सरकार चौतरफा घेराबंदी कर दी. 


1999 में राजद के अनावरुल हक ने शिवहर सीट पर आनंद मोहन को कड़ी पटखनी दी. इस हार के बाद आनंद मोहन का सियासी रसूख खत्म होने लगा. पत्नी भी वैशाली और बाद में शिवहर सीट से चुनाव हार गई. 


इधर, निचली अदालत ने आनंद मोहन को 2007 में मौत की सजा सुना दी, जिसके बाद पटना हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की गई. हाईकोर्ट ने आनंद मोहन को राहत देते हुए 2008 में मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया. 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के फैसले पर मुहर लगा दी. 


5. सियासत में सूख चुके आनंद मोहन को लालू ने दी संजीवनी
1999 के बाद आनंद मोहन और लवली आनंद करीब 8 चुनाव लड़े, जिसमे 2 विधानसभा के चुनाव भी शामिल था. बिहार में बदले राजनीति माहौल में आनंद मोहन का परिवार चुनावी जीत से काफी दूर चला गया.


बिहार के सियासी गलियारों में आनंद मोहन परिवार को राजनीतिक रूप से खात्मे की चर्चा शुरू होने लगी, लेकिन 2020 में लालू यादव की पार्टी राजद उनके बेटे को शिवहर से विधायकी का टिकट दे दिया. चेतन आनंद चुनाव जीतने में भी कामयाब रहे. 


लालू की संजीवनी के बाद आनंद मोहन फिर से सियासत में सक्रिय हुए. बिहार में महागठबंधन की सरकार बनने के बाद उन्हें पैरोल भी मिला. उनकी बेटी की सगाई में सीएम और डिप्टी सीएम भी शामिल हुए. 




(Photo- Social Media)


सजा पूरी फिर रिहा क्यों नहीं हो पा रहे आनंद मोहन?
आनंद मोहन की आजीवन कारावास की सजा 17 मई 2022 को पूरी हो गई थी, लेकिन बिहार सरकार ने उस वक्त रिहा नहीं किया. सरकार का कहना था कि लोकसेवक की हत्या मामले में आनंद मोहन आरोपी हैं. सरकार ने कहा था कि आजीवन कारावास के भी अलग-अलग मानदंड हैं, ऐसे में आनंद को रिहा नहीं किया जाएगा.


बिहार की सियासत में मई से लेकर अब तक काफी कुछ बदल चुका है. नीतीश अब राजद के साथ हैं और 2024 की तैयारी कर रहे हैं. माना जा रहा है कि आनंद मोहन की जल्द ही रिहाई हो सकती है.


आनंद मोहन की रिहाई के लिए अब बेताब क्यों है नीतीश?
बाहुबली और डीएम हत्या मामले में सजायफ्ता आनंद मोहन की रिहाई के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार क्यों लगे हैं, इसको लेकर सियासी चर्चा शुरू हो गई है. नीतीश अक्सर क्राइम, करप्शन और कम्युनलिज्म से समझौता नहीं करने की बात करते हैं. ऐसे में नीतीश आनंद मोहन की रिहाई को लेकर इतने उत्सुक क्यों हैं?


महागठबंधन के पास राजपूत नेताओं की कमी
मिशन 2024 में जुटे नीतीश कुमार और महागठबंधन के पास उत्तर बिहार में राजपूत नेताओं की कमी है. एक अनुमान के मुताबिक बिहार में करीब 5 फीसदी राजपूत वोटर्स हैं. रघुवंश सिंह और नरेंद्र सिंह के निधन से राजपूत नेताओं की कमी है.


ऐसे में आनंद मोहन को महागठबंधन राजपूत चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट कर सकती है. राजपूत युवाओं में आनंद मोहन अभी भी लोकप्रिय है. सोशल मीडिया पर कई पेज आनंद मोहन सिंह के नाम से चलाए जाते हैं, जिसकी फॉलोअर्स की तादाद लाखों में है.


रिहाई को लेकर क्रेडिट लेने की भी मारामारी
नीतीश कुमार की पार्टी की भी नजर राजपूत वोटरों पर है. राजपूत आम तौर पर राजद के वोटर्स रहे हैं. 2009 में राजद से सिर्फ 4 सांसद बने थे, जिसमें से लालू को छोड़कर बाकी के 3 राजपूत थे. 


ऐसे में नीतीश रिहाई की बात बोलकर इसका क्रेडिट भी लेने में जुटे हैं. इससे राजपूत बहुल सीटों पर जेडीयू उम्मीदवारों को समुदाय की नाराजगी नहीं झेलनी पड़ेगी. 


लोकसभा की 4 सीटों पर सीधा असर
आनंद मोहन और उनके परिवार का लोकसभा की 4 सीटों पर सीधा दबदबा है. इनमें शिवहर, खगड़िया, मुजफ्फरपुर और वैशाली सीट शामिल हैं. वैशाली और शिवहर से आनंद और लवली सांसद भी रहे हैं.


इन 4 में से वर्तमान में 2 सीट बीजेपी और 2 सीट रालोजपा के पास है. यानी चारों सीट पर एनडीए का कब्जा है.