आरा: जिले में मंगलवार को 1942 के 12 अमर शहीदों के शहादत दिवस पर लसाढ़ी, भोजपुर में आयोजित राजकीय समारोह में माल्यार्पण कर उन्हें याद किया गया. बता दें कि सन 1942 में भारत छोड़ों आंदोलन चरम पर था और आज ही के दिन में चासी, ढकनी, डुमरिया और लसाढ़ी के बारह क्रांतिकारी अंग्रेजों की गोलियों से शहीद हुए थे.


सरकारी दस्तावेज में लगा दी थी आग


दरअसल, लसाढ़ी के क्रांतिकारियों ने अंग्रजों के कार्यालय को क्षतिग्रस्त कर भोजपुर में उनकी आर्थिक नींव कमजोर करने का निर्णय लिया. इस काम के लिए रामप्रित सिंह, देवी दयाल सिंह, त्रिवेणी सिंह और चौधरी सिंह के नेतृत्व में आयोजित बैठक में लसाढ़ी, चासी, ढ़कनी आदि गांव के सैकड़ों उत्साही नौजवानों ने हिस्सा लिया. अगले दिन अगिआंव स्थित सोन नहर, डाकबंगला, डाकखाना लूटकर सरकारी दस्तावेज में आग लगा दी गयी.


ग्रामीणों ने अंग्रेजों से लिया था लोहा


गवर्नर रोजर लवली की रिपोर्ट से अंग्रेज महकमा हिल गया. वायसराय लिन लिथगो ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को रिपोर्ट कर अशांति का असली केन्द्र बिहार को बताया. संचार के तमाम साधन ध्वस्त कर दिए गए थे. ऐसे में ब्रिटिश सांसद जार्ज चर्चिल के नेतृत्व में निर्णय हुआ कि लसाढ़ी को ध्वस्त कर दिया जाए. अंग्रेजो ने गांव को घेर लिया, लसाढ़ी के घिर जाने पर लाठी, डंडे, भाला, गंड़ासा और तलवार जैसे परंपरागत हथियारों से मशीनगनकी गोलियों का सामना करते हुए क्रांतिकारियों ने गांव से पीछे धकेल दिया.


इस दौरान एक महिला अकली देवी समेत बासुदेव सिंह, महादेव सिंह, सभापति सिंह, गिरिवर सिंह कथा जगन्नाथ सिंह शहीद गए. इस गोलीकांड में घरभरन सिंह, कलक्टर सिंह, गोधन बैठा, जिराखन सिंह, राम विलास सिंह और रामकृत सिंह घायल हो गए.


आठ लोगों को किया गया था गिरफ्तार


इसके बाद चासी और ढकनी के क्रांतिकारियों का जत्था डंका बजाकर अंग्रेजों का सामना करने और लसाढ़ी के लोगों की मदद करने आगे बढ़ने लगा. इस लड़ाई में चासी के चार क्रांतिकारी रामानंद पाण्डेय, रामदेव सिंह, केशेश्वर सिंह तथा ढकनी के शीतलप्रसाद सिंह, केशव प्रसाद आदि शहीद हुए. वहीं घरभरन सिंह समेत आठ नामजद को गिरफ्तार कर कैम्प जेल फुलवारीशरीफ भेज दिया गया.


1972 में लगाया गया एक शिलालेख


15 सितंबर 1942 के शहीदों का नाम गांव में पहली बार 1951 में एक शीलापट्ट पर लिखा गया. इसका उद्घाटन तत्कालीन पूर्व उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम ने किया था. उसके बाद कांग्रेसी नेता रामप्रीत सिंह द्वारा 9 अगस्त 1972 को एक शिलालेख लगाया गया. भाकपा (माले) के वरिष्ठ नेता रामनरेश राम जब 1995 में सहार विधानसभा से विजयी हुए तो वो भी लसाढ़ी गांव गए थे. साथ ही मूर्तिकार को सचिवालय के पास शहीद स्मारक पर ले जाकर दिखाया.


1998 में हुआ आदमकद प्रतिमा का लोकार्पण


वर्षों बाद 15 सितंबर 1998 को यह गांव दुबारा से सूर्खियों में आया. उस दिन गांव में काफी चहल-पहल थी 'शहीदों के अरमानों को मंजिल तक पहुंचाएंगे' के संकल्प के साथ शहीद स्मारक का शिलान्यास हुआ. साथ ही शहीद स्मारक में सभी 12 शहीदों की आदमकद प्रतिमाएं एक विशाल चबूतरे पर स्थापित करने के अलावे गांव के विकास की घोषणा हुई. सहार के तत्कालीन विधायक राम नरेश राम के विधायक कोष की राशि से शहीदों की आदमकद प्रतिमाओं का निर्माण हुआ. 15 सिंतबर 2000 को इसका शिलान्यास भाकपा (माले) के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने इसका लोकार्पण किया था. कुछ सालों से यहां सरकारी स्तर पर भी कार्यक्रम आयोजित होता है.