स्वतंत्रता के 74वें वर्षगांठ पर पढ़िए देश के ऐसे वीर की कहानी जिसने सबसे पहले अंग्रेजों के खिलाफ खोला था मोर्चा
बिहार में राष्ट्रीय आंदोलन के शुभारंभ का श्रेय शिरीष कुटुंबा के जमींदार और पवई रियासत के राजा नारायण सिंह को जाता है. उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले जंग का बिगुल फूंका था और 1786 तक ब्रिटिश हुकूमत से जमकर लोहा लिया था.
औरंगाबाद: स्वतंत्र भारत के इतिहास में यदि स्वतंत्रता संग्राम का जिक्र किया जाए तो देश का हर आम नागरिक भी इस बात को स्वीकार करेगा कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम लड़ाई का बिगुल मंगल पांडेय ने वर्ष 1857 में फूंकी थी और उसके बाद कई लड़ाईयां छिड़ीं और देश 1947 में आजाद हुआ. मगर बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि 1857 से 87 वर्ष पूर्व ही वर्ष 1770 में औरंगाबाद के पवई रियासत के राजा नारायण सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले जंग का बिगुल फूंका था और 1786 तक ब्रिटिश हुकूमत से जमकर लोहा लिया था.
हालांकि, स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखने वालों ने कभी उनके साथ न्याय नहीं किया और न ही कहीं इनके बहादुरी के किस्से उजागर किए. मगर इनके साथ शाहाबाद के तात्कालीन कलेक्टर और अंग्रेज लेखक रेजीनाल्ड हैंड ने इन्साफ किया और 1781 में स्वलिखित पुस्तक अर्ली इंग्लिश एडमिनिस्ट्रेशन में उनका जिक्र किया. किताब के पृष्ठ संख्या-84 पर राजा नारायण सिंह का जिक्र है.
इस पृष्ठ पर हैण्ड ने पावरफुल जमींदार्स शीर्षक से एक आर्टिकल लिखा था और उस आर्टिकल में राजा नारायण सिंह को ब्रिटिश हुकूमत का पहला शत्रु करार दिया गया है. वहीं इस संदर्भ में फारसी लेखक शैरुन मौता खरीन की ओर से लिखित फारसी इतिहास और सर्वे सेटेलमेंट गया में भी उनकी इसी रूप में चर्चा है. प्रसिद्ध इतिहासकार के.के दत्ता ने भी प्राचीन भारतीय इतिहास में उनका इसी रूप में उल्लेख किया है. इन सभी पुस्तकों में लिखी बात आज भी इस बात को बल दे रही है कि राजा नारायण सिंह अंग्रेजों के प्रथम शत्रु थे और उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई उस समय लड़ी जब अंग्रेजी सरकार के खिलाफ विद्रोह की लहर नहीं चली थी.
बता दें कि 1764 में बक्सर के मैदान में ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली के शाह आलम, बिहार बंगाल के नवाब मीर कासिम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला को बक्सर युद्ध में राजा चेत सिंह के साथ मिलकर हरा दिया था. उस दिन भारत गुलाम हो गया था और आजादी के लिए राष्ट्रीय आंदोलन का शुभारंभ हुआ था, जो अंग्रेजों के साथ मराठा और सिख युद्ध, हैदर अली, टीपू सुल्तान, जयसिंह, राजा नारायण सिंह और राजा रणजीत सिंह के विद्रोह के रूप में देखने को मिलता है.
बिहार में राष्ट्रीय आंदोलन के शुभारंभ का श्रेय शिरीष कुटुंबा के जमींदार पवई रियासत के राजा नारायण सिंह को जाता है. इनके चाचा विष्णु सिंह ने प्लासी युद्ध के समय पलामू राजा के साथ मिलकर बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला से युद्ध किया था. उन्होंने ही मीर कासिम और अवध के नवाब सिराजुद्दौला को बक्सर युद्ध में चेत सिंह के साथ मिलकर पछाड़ा था और चेत सिंह ने हार स्वीकार नहीं की और वे अंग्रेजों का सदा विरोध करते रहे. इनके ससुर टिकारी के राजा पीतांबर सिंह, पवई के राजा विष्णु सिंह और युवराज नारायण सिंह के मित्र थे.
बता दें कि विष्णु सिंह का नाम पवई राज के बड़े विजेता के रूप में शुमार था. यही कारण था कि उन्हें जगदीशपुर रियासत से दहेज के रूप में पंचवन क्षेत्र मिला था. राजा विष्णु सिंह के बाद 1764 ईस्वी में उनके भतीजा राजा नारायण सिंह पवई की गद्दी पर आसीन हुए और उन्होंने अंग्रेज विरोधी रुख अख्तियार किया. राजा नारायण सिंह को राष्ट्रीयता विरासत में मिली थी और उन्होंने अंग्रेजों की शोषण नीति और मालगुजारी वसूली की ठेका पद्धति का विरोध किया क्योंकि अंग्रेज इससे जमींदार रैयत और आमजनों पर मनमाना शोषण करते थे.
उन्होंने 1764 ईस्वी में ही विष्णु सिंह की अनुपस्थिति में ब्रिटिश सरकार के नायब मेहंदी हुसैन को खदेड़ कर अपने औरंगाबाद स्थित दुर्ग शाहपुर कचहरी की रक्षा की थी. वर्तमान में इस दुर्ग में राम लखन सिंह यादव कॉलेज चल रहा है. 1765 इसी में उन्हें सीरीस, कुटुंबा सहित छह परगना अंछा, पचवन, गोह, मनोरा की बंदोबस्ती 175000 में दी गई थी. लेकिन जमीनदारी के ठेका को अंग्रेजों की शोषण नीति मानकर राजा नारायण सिंह लगातार विरोध करते रहे.
1770 के भीषण अकाल में उन्होंने रैयतों की मालगुजारी माफ कर जनता में अपना खजाना बांटते हुए अंग्रेजों को मालगुजारी देने से इनकार किया. लाचार होकर कंपनी सरकार ने तिलौथू के शाहमल को अवमिल नियुक्त कर उनके पास मालगुजारी वसूली के लिए भेजा लेकिन राजा नारायण सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ अपनी लड़ाई का बिगुल फूंक दिया और मालगुजारी वसूलने आए शाहमल को उनके सैनिकों के साथ खदेड़ दिया.
इस घटना के बाद अंग्रेज लगातार उनपर चढ़ाई करते रहे. मगर उन्होंने बराबरी का टक्कर देते हुए अंग्रेज के सिपाहियों को अपनी सीमा में प्रवेश नहीं करने दिया. अंत में ब्रिटिश सरकार के दीवान कर्नल बॉर्डर को शेरघाटी छावनी से सेना सहित उनसे कर वसूली के लिए भेजा गया, जिसने बगावत करने पर इनके पवई दुर्ग को 1778 ईस्वी में ध्वस्त कर दिया पर उसके बावजूद भी राजा नारायण सिंह झुके नहीं और मिट्टी का घर बनाकर रहने लगे.
बाद में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा नई व्यवस्था के तहत पटना के राजा कल्याण सिंह को कंपनी सरकार का दीवान यानी बिहार के जमींदारों का प्रधान बनाया और बनारस के राजा चेत सिंह के शत्रु ख्यालीराम को कल्याण सिंह का नायब नियुक्त किया और मिस्टर मैक्सवेल को कंपनी ने राजस्व प्रधान बनाया. इस व्यवस्था के अनुसार कल्याण सिंह को बिहार के जमींदारों को बकाया मालगुजारी नहीं देने पर बंदी बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया था.
इसी आधार पर राजा कल्याण सिंह ने पवई के राजा नारायण सिंह, नरहट सराय के राजा अकबर अली, भोजपुर के राजा विक्रमजीत सिंह, जगदीशपुर के राजा भूप नारायण सिंह, तिरहुत के राजा मधु सिंह और अन्य राजाओं को पटना की बेगम की हवेली में मालगुजारी बकाए के कारण बंदी बना लिया. इस क्रम में कंपनी सरकार ने बगावत की संभावना को देखते हुए किस्त वसूली का मालिकाना हक स्वीकृत कर राजा नारायण सिंह समेत सभी राजाओं को 1778 ईस्वी में रिहा कर दिया.
जब बनारस के राजा चेत सिंह ने कंपनी शासन के विरुद्ध बगावत कर आजादी की खुली घोषणा कर दी तब कई अन्य जमींदारों ने उनका साथ दिया. इस क्रम में भूप नारायण सिंह और विक्रमजीत सिंह ने आरा- बक्सर होकर दानापुर छावनी से आने वाली फौज को रोक दिया. मधु सिंह ने छपरा बलिया का मार्ग बंद किया और पवन सिंह ने सासाराम के साथ मिलकर मोर्चाबंदी की. इधर पवई के राजा नारायण सिंह में सासाराम के अवमिल कुली खाव टेकारी के राजा पीताम्बर सिंह के साथ मिलकर सोन के पश्चिमी तट पर मोर्चाबंदी की और कलकत्ता से आने वाली सेना को बारुन के मल्लाहों से नदी में डुबवा दिया और बचे खुचे सैनिकों को मार डाला.
5 मार्च 1781 को राजा नारायण सिंह ने पहली बार अंग्रेजों को उनके क्षेत्र में ही पराजित किया. बिहार के राजाओं के द्वारा ऐसी नाकाबंदी के कारण पूरब तरफ ब्रिटिश फ़ौज बनारस या चुनार नहीं पहुंच सकी, जिससे वारेन हेस्टिंग्स की जान खतरे में पड़ गई. तब इलाहाबाद, कानपुर और गोरखपुर की सेना ने पहुंचकर हेस्टिंग्स की सहायता की. इसके बाद राजा भूपनारायण सिंह बंदी बना लिए गए. जबकि भोजपुर के राजा विक्रमजीत सिंह भय से अंग्रेजों के साथ मिल गए. लेकिन राजा नारायण सिंह अंग्रेजों के साथ लड़ते रहे.
राजा नारायण सिंह ने चतरा से शेरघाटी होकर राजा चेत सिंह पर चढ़ाई करने जा रही मेजर क्रोफोर्ड की सेना को औरंगाबाद क्षेत्र में रोक रखा था और उनकी 1500 सेना मैरवा आकर चेत सिंह के सेनापति बेचू सिंह से और उनके सैनिकों से मिलकर कोडिया घाटी और कैमूर पहाड़ियों में मेजर क्रोफोर्ड से भारी युद्ध किया था, जिसमें पलामू के राजा गजराज ने साथ दिया था. जबकि उनके विरुद्ध चरकांवां के राजा छत्रपति सिंह और उनके पुत्र फतह नारायण सिंह ने 900 सैनिकों सहित मेजर क्रोफोर्ड का साथ दिया.
छत्रपति सिंह की गद्दारी के कारण राजा नारायण सिंह टिकारी की ओर नहीं जा सके. बल्कि पुनपुन, सोन की घाटी, पवई, रामनगर और कैमूर की पहाड़ियों में मेजर क्रोफोर्ड को गुरिल्ला युद्ध में उलझाए रखा. जब क्रोफोर्ड को कार्यकारी गवर्नर चार्टर और जनरल हार्डों ने राजा नारायण सिंह को कैद कर लेने का आदेश दिया, तब महादेवा के राजा मारू सिंह ने उनका विरोध कर उन्हें पकड़वाने का षड्यंत्र किया और अंततः वे तिलौथू क्षेत्र में मेजर क्रोफोर्ड और जनरल की बड़ी सेना से घिर गए.
तब अनुज राम सिंह की सलाह पर वे उप गवर्नर से वार्ता करने पटना गए, जहां उन्हें कैद कर लिया गया और 5 मार्च 1786 को उन्हीं राजकीय बंदी के रूप में ढाका जेल भेज दिया गया. बाद में रिहा होने पर राजा नारायण सिंह पवई स्थित अपने दुर्ग में ही रहने लगे और उसी वर्ष उनकी मृत्यु हो गई.