पटना: एलजेपी और पासवान परिवार में जारी खींचतान पर विवाद जारी है. चाचा-भतीजा के बीच पार्टी के पद को लेकर चल रहे रार पर सभी दलों के नेता प्रतिक्रिया दे रहे हैं. इसी क्रम में बुधवार को राष्ट्रीय जनता दल के प्रदेश प्रवक्ता चितरंजन गगन ने इस पूरे प्रकरण पर अपनी प्रतिक्रिया दी है. इस मामले में उन्होंने कहा कि लोकसभा अध्यक्ष की ओर से गलत परंपरा की शुरुआत की गई है.
संसदीय परम्परा के खिलाफ लिया फैसला
आरजेडी प्रवक्ता ने कहा, " लोकसभा अध्यक्ष की ओर से पशुपति कुमार पारस को एलजेपी संसदीय दल का नेता अधिसूचित करना संसदीय परम्परा के खिलाफ है. लोकसभा में उन्हें अलग गुट के नेता के रूप में मान्यता दी जा सकती थी. किसी पार्टी के संसदीय दल का नेता कौन है, यह उस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा लोकसभा अध्यक्ष को सूचित किया जाता है."
चितरंजन गगन ने कहा, " भले ही लोकसभा में एलजेपी के छः सदस्यों में पाँच सदस्यों ने पशुपति कुमार पारस को अपना नेता चुन लिया हो पर बगैर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के अनुशंसा के उन्हें एलजेपी संसदीय दल का नेता अधिसूचित करना संसदीय परम्परा के विरुद्ध है. संसदीय दल का नेता और संसद सदस्यों को न तो राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुलाने और न राष्ट्रीय अध्यक्ष के खिलाफ कोई कार्रवाई करने का अधिकार है."
पहले भी ऐसी घटनाएं घटी हैं
आरजेडी प्रवक्ता ने कहा कि पहले भी ऐसी घटनाएं घटी हैं, जिसमें पार्टी नेतृत्व के खिलाफ लोकसभा में पार्टी के बहुमत सदस्यों का समर्थन रहने के बावजूद उसे एक गुट के रूप में ही मान्यता दी गई है. 1969 में कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने इंदिरा गांधी को कांग्रेस संसदीय दल के नेता पद से हटा कर डॉ. रामसुभग सिंह को कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुन लिया था.
उन्होंने कहा, " लोकसभा में कांग्रेस के अधिकांश सदस्य इंदिरा गांधी के समर्थन में थे पर तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष जीएस ढिल्लो ने डॉ. रामसुभग सिंह को हीं कांग्रेस संसदीय दल के नेता के रूप में मान्यता दी और इंदिरा गांधी को लोकसभा में एक अलग गुट कांग्रेस(आर) के नेता के रूप में मान्यता दी गई. डॉ.रामसुभग सिंह लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बने और उनके नेतृत्व वाली कांग्रेस को कांग्रेस (ओ ) की संज्ञा दी गई. जबकि जीएस ढिल्लो खुद इंदिरा गांधी के प्रबल समर्थक थे."
उन्होंने कहा कि लोकसभा अध्यक्ष द्वारा पशुपति कुमार पारस को एलजेपी संसदीय दल के नेता के रूप में अधिसूचित करना एक गलत परम्परा की शुरुआत मानी जाएगी. इससे संसदीय लोकतंत्र न केवल कमजोर होगा बल्कि उसकी ऐतिहासिक गरीमा को ठेस पहुंचेगा.
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