छपरा: भोजपुरी के शेक्सपीयर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर आज इतिहास के पन्नों में छिपते नजर आ रहे हैं. कभी समाज को आईना दिखाने वाली रचनाएं लिखने वाले लोककवि की रचनाएं और उसकी प्रासंगिकता आज संघर्ष के दौर में खड़ी है. अपनी कला और रचनाओं के माध्यम से समाज की कुरीतियों पर कड़ा प्रहार करने वाले भिखारी ठाकुर एक महान क्रांतिकारी थे. लेकिन आज उन्हें केवल उनकी जयंती पर फूलमालाओं और संवेदना भरे भाषणों से याद किया जाता है.


भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसम्बर 1887 को बिहार के सारण जिले के कुतुबपुर (दियारा) गांव में एक नाई परिवार में हुआ था. उनके पिताजी का नाम दल सिंगार ठाकुर और माताजी का नाम शिवकली देवी था. गांव में पलने बढ़ने के बाद वे जीविकोपार्जन के लिए गांव छोड़कर खड़गपुर चले गए. वहां उन्होंने काफी पैसा कमाया लेकिन वे अपने काम से संतुष्ट नहीं थे. रामलीला में उनका मन बस गया था. इसके बाद वे जगन्नाथ पुरी चले गए. वहां भी मन ना लगा तो अपने गांव वापस आ गए.


अपने गांव आकर उन्होंने एक नृत्य मण्डली बनायी और रामलीला करने लगे. इसके साथ ही वे गाना गाते और सामाजिक कार्यों से भी जुड़े. उन्होंने नाटक, गीत और पुस्तकें लिखना भी शुरू कर दिया. उनकी पुस्तकों की भाषा बहुत सरल थी, जिससे लोग बहुत आकर्षित हुए. उनकी लिखी किताबें वाराणसी, हावड़ा और छपरा से प्रकाशित हुईं.


देश की सभी सीमाएं तोड़कर उन्होंने अपनी मंडली के साथ-साथ मॉरीशस, केन्या, सिंगापुर, नेपाल, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम, युगांडा, म्यांमार, मैडागास्कर, दक्षिण अफ्रीका, फिजी, त्रिनिडाड और अन्य जगहों का भी दौरा किया, जहां भोजपुरी संस्कृति कम या ज्यादा समृद्ध है. 1971 में ठाकुर की मृत्यु के बाद, उनकी थिएटर शैली की उपेक्षा हुई. फिर भी, समय के साथ इसने एक नया आकार ले लिया है और आज उसकी 'लाउंडा डांस' शैली लोकप्रिय हो गई है.


भोजपुरी के अमर कलाकार भिखारी ठाकुर भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी, लोक जागरण के सन्देश वाहक, लोकगीत और भजन कीर्तन के अनन्य साधक थे. वे बहु आयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे. वे भोजपुरी गीतों और नाटकों की रचना और अपने सामाजिक कार्यों के लिए प्रसिद्ध हैं. वे एक महान लोक कलाकार थे, इसलिए उन्हें 'भोजपुरी का शेक्शपीयर' कहा जाता है. भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने भोजपुरी को ही अपने काव्य और नाटक का भाषा बनाया.


शिव विवाह, भजन कीर्तन, रामलीला गान, कृष्ण, माता भक्ति, आरती, बुढशाला के बयाँ, चौवर्ण पदवी, नाइ बहार, शंका समाधान, विविध लेखक ठाकुर को भोजपुरी भाषा और संस्कृति का बड़ा झंडा वाहक माना जाता है. भोजपुरी झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बंगाल के कुछ हिस्सों सहित बिहार के प्रमुख हिस्सों में व्यापक रूप से बोली जाती है. लेकिन वह केवल इस भाषाई क्षेत्र में ही लोकप्रिय नहीं हैं. बल्कि उन शहरों में भी जहां बिहारी श्रमिक अपनी आजीविका के लिए चले गए. कई ने सामंत और ब्राह्मणवादी मूल्यों को कायम रखने के लिए उनकी आलोचना की, जो कुछ हद तक सच हो सकते हैं.


अपने कार्यों में कुछ ब्राह्मण और सामंती मूल्यों के समर्थन और वैधता के बावजूद, उन्होंने हमेशा एक समानता और समतावादी समाज की दृष्टि से पहल की है और यह हमें समझना चाहिए. ब्राह्मणवादी मूल्यों के इन मूर्खतापूर्ण और अतर्कसंगत छायाओं के तहत समतावादी और उपलक्ष्य समाज की कोई भी कल्पना नहीं की जा सकती. हालांकि उनके नाटक गांवों और ग्रामीण समाज के चारों ओर विकसित हुए, जिसके बाद वे कोलकाता, पटना, बनारस और अन्य छोटे शहरों जैसे बड़े शहरों में बहुत प्रसिद्ध हो गए. जहां प्रवासी मजदूरों और गरीब श्रमिक अपनी आजीविका की खोज में गए.


भिखारी ठाकुर की बिदेशिया, बेटी-बेचवा, गबरघिचोरहा जैसी कई रचनाएं हैं, जिसने न सिर्फ लोगों के मन में एक खास जगह बनाई बल्कि समाज में व्याप्त कुरीतियों पर कड़ा प्रहार कर आंदोलन की नई राह प्रसस्थ की. लोककवि ने अपने दौर में जीवंत रचनाओं और अपने बेबाक अंदाज को जिस प्रकार लोकगीतों के माध्यम से बयान किया था यदि उसे पिछली सरकारों ने साकार रूप देने का काम किया होता तो भोजपुरी और लोककवि दोनों ही इस सामाजिक सरोकार के सबसे बड़े पथ प्रदर्शक बन कर उभरते.


वैसे यह सम्भव नहीं हो सका, जिस भिखारी ने वर्षों पहले ही समाज को एक नयी चेतना प्रदान की थी, आज उनके गांव, परिवार और दुर्लभ रचनाओं को सहेजने वाला कोई नहीं है. लोककवि का पैतृक गांव कुतबपुर दियारा विकास के लिए संघर्षरत है.


उनके लोकसंगीत और रचनाओं को आगे बढ़ाने वाले परिवार के सदस्य और उनके शिष्य तंग हालातों में गुजर बसर करने को मजबूर हैं. जिस जिले ने बिहार को ही नहीं बल्कि देश को कई बड़े नेताओं और मंत्रियों की सौगात दी हो, उसी जिले का मान-सम्मान बढ़ाने वाले भिखारी ठाकुर बस जयंती और पुण्यतिथि पर याद किए जाते हैं. अब वो केवल राजनीतिक रोटी सेंकने का जरिया बन कर रह गए हैं.


हालांकि भोजपुरी को अपनी आत्मा मानकर कुछ साहित्यकारों और लोक कलाकारों ने उनकी रचनाओं को आज भी प्रासंगिक बनाये रखा है. समय-समय पर सम्मेलन और संगोष्ठियां आयोजित कर भोजपुरिया समाज भिखारी को नमन करता रहा है. लेकिन जिनके विचारों को आत्मसात कर वर्तमान सरकार कुरीतियों को मिटाने का आधार बुन रही है, उन्हें कुतबपुर दियारा के विकास और भोजपुरी के उत्थान की ओर भी अपने कदम बढ़ाने पड़ेंगे.