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आजादी के पहले कभी किसानों के लिए वरदान मानी जाने वाली ये फैक्ट्री आज बन चुकी है खंडहर, पढ़ें पूरी कहानी
कंपनी द्वारा बाहर से टोबैको बीज लाकर यहां के किसानों को दिया जाता था, जिससे यहां व्यापक रूप से टोबैको खेती की जाती थी.
![आजादी के पहले कभी किसानों के लिए वरदान मानी जाने वाली ये फैक्ट्री आज बन चुकी है खंडहर, पढ़ें पूरी कहानी The cigarette factory, once considered a boon for farmers, has become ruins today, read the full story ann आजादी के पहले कभी किसानों के लिए वरदान मानी जाने वाली ये फैक्ट्री आज बन चुकी है खंडहर, पढ़ें पूरी कहानी](https://static.abplive.com/wp-content/uploads/sites/2/2020/08/30001607/IMG-20200829-WA0002_copy_720x540.jpg?impolicy=abp_cdn&imwidth=1200&height=675)
समस्तीपुर: आजादी से पूर्व समस्तीपुर के दलसिंहसराय प्रखंड स्थित सिगरेट कंपनी यहां के किसानों के लिए किसी सोने की चिड़िया से कम नहीं हुआ करती थी. लेकिन आज वह किसी पुरातात्विक अवशेष के रूप में लोगों का मुंह चिढ़ा रही है. वर्ष 1905 में आईएलटीडी कंपनी ने यहां सिगरेट फैक्टरी की स्थापना की थी. यहां पर सिगरेट में डाले जाने वाली लीफ टोबैको तैयार होती थी. कंपनी द्वारा बाहर से इसका बीज लाकर यहां के किसानों को दिया जाता था, जिससे यहां व्यापक रूप से टोबैको खेती की जाती थी.
टोबैको की फसल जब तैयार ही जाती थी, तब उसे जाड़े के मौसम मैं ओस सूखने से पहले ही अँधेरे में ही काट लिया जाता था, जिसे किसान सैंकड़ो बैल गाड़ी पर लादकर यहां लाते थे और कंपनी को बेच देते थे. कंपनी मशीन द्वारा उस पत्ते का शुद्धिकरण करके उसका लीफ तैयार कर मुंगेर स्थित सिगरेट फैक्टरी भेज देती थी, जहां उसका इस्तेमाल सिगरेट तैयार करने में किया जाता था.
बता दें कि मुंगेर में ही कैप्स्टन 555, वील्स और इण्डिया किंग्स इत्यादि ब्रांड का सिगरेट तैयार किया जाता था. कम्पनी में लगभग 300 मजदुर और बीस किरानी काम करते थे. मजदूरों को जहां सप्ताह में वेतन दिया जाता था वहीं किरानी को महीने में वेतन मिला करता था. कम्पनी उस समय कलकत्ता से डॉ. बी दत्ता को यहां लाई थी जो फैक्टरी में काम करने वाले मजदूरों का ईलाज किया करते थे.
उन्हें कंपनी की ओर से आवास दी गई थी, जहां इनकी डिस्पेंसरी के साथ-साथ ही क्रिएशन क्लब चलता था. वर्ष 1948 में इंडियन ट्रेड यूनियन के कांग्रेसी नेता और स्वतंत्रा सेनानी सतपाल मिश्र ने मजदूरों के हित में आवाज उठानी शुरू की और वर्ष 1950 में मजदूरों द्वारा बरती गई अनुशासनहीनता के कारण कंपनी ने फैक्टरी में ताला बंदी कर काम बंद कर दिया. तब मजदुर यूनियन ने इस बंदी के खिलाफ उच्च न्यायालय का दरवाजा खट खटाया था.
न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि कंपनी फैक्टरी में तीन महीने के अंदर काम शुरू करे या मजदूरों को तीन-तीन साल का अग्रिम वेतन का भुगतान कर काम बंद कर सकती है. तभी कंपनी ने न्यायालय की दूसरी शर्त को मानते हुए सभी को तीन-तीन साल का वेतन मुआवजा के रूप में देकर काम बंद कर फैक्ट्री में ताला लगा दिया. वहीं कंपनी ने कुछ वफादारों को अन्य जगह काम पर भेज दिया.
इसी क्रम में बाबू असर्फी प्रसाद ने कई सालों तक कंपनी में जगह-जगह काम करते हुए विदेश में ही अंतिम सांस ली. कंपनी जब बंद हो रही थी तब यहां के चीफ मैनेजर के रूप में मिस्टर टॉय कार्यरत थे, जिन्होंने सारी मशीनों को दूसरी फैक्टरी में भेज दिया. देश की आजादी के बाद भारत में अपनी परिसंपत्तियों को बेचने के सिलसिले में ही इस फैक्टरी को भी अंग्रेजी हुक्मरानों ने यहां के जमींदार बाबू बालेश्वर प्रसाद चौधरी के हांथो बेच दिया था. वहीं फैक्टरी पर मालिकाना हक बदलने के साथ ही पानी फिर गया. आज फैक्टरी परिसर खंडहर बनकर रह गया है.
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