औरंगाबाद: नदियों, तालाबों और प्रकृति प्रदत संपत्तियों के दोहन की वजह से आज पूरा विश्व पर्यावरण के असंतुलन का खामियाजा भुगत रहा है. इतना ही नहीं, इसके कारण मानव जीवन खतरे में पड़ गया है. पिछले वर्ष प्रचंड गर्मी और लू के कारण औरंगाबाद में सौ से अधिक लोगों की 15 दिनों में मौत हो गई. सदर अस्पताल में अधिकतर मरीज ब्राउट टू डेड मिले.
प्रशासन भी नहीं कर रही कोई पहल
प्रकृति के संतुलन को बरकरार रखने के लिए राज्य सरकार ने जल-जीवन-हरियाली योजना चलाई और बिहार के तमाम जिले के जिलाधिकारियों को नदी और तालाब को अतिक्रमण मुक्त करने के आदेश जारी किया और प्रदूषण से मुक्ति के लिए वृक्षारोपण पर जोर दिया. औरंगाबाद प्रशासन भी इस वर्ष मिशन ढाई करोड़ वृक्षारोपण के लक्ष्य को लेकर चल रही है. लेकिन वे जिले की एक मानव निर्मित नदी के अस्तित्व को बचाने के प्रति उत्सुक नहीं दिखते.
मानव निर्मित नदी है अदरी
यह नदी जिले में अदरी नदी के नाम से जानी जाती है. जिले के इतिहासविद प्रो.बिनोद कुमार सिंह ने बताया कि जिले में कई नदियां मानव निर्मित हैं और उनसे सिंचाई की व्यवस्था बनाई गई थी. इन्ही नदियों में से एक नदी अदरी भी है, जिसका उद्गम स्थल देव प्रखंड के अदरी गांव से माना जाता है. उन्होंने बताया कि प्राचीन समय में सिंचाई व्यवस्था को समृद्ध बनाने के लिए अदरी गांव में एक चेक डैम का निर्माण किया गया था और यहां बरसात के दिनों में पहाड़ों से गिरने वाले पानी संग्रहित किया जाता था और इस गांव से पटवन की एक समृद्ध प्रणाली विकसित की गई थी.
अतिक्रमित होती चली गई नदी
प्रो.बिनोद कुमार सिंह की माने तो उस वक्त इस नदी से देव प्रखंड के खखड़ा, खडीहा, कटैया के साथ-साथ निचले गांवों के खेतों में पटवन की जाती थी और फिर औरंगाबाद के चतरा, चौरिया, बांसखाप और राघौलिया गांव के किसानों को फायदा मिला करता था. लेकिन नदियों के संरक्षण को लेकर सरकार उदासीन रही और धीरे-धीरे यह नदी अतिक्रमित होती चली गई.
लुप्त होने के कगार पर पहुंची नदी
जानकार बताते हैं कि सोन नहर प्रणाली के वजूद में आने के बाद शहर के गंगटी रोड में उदवह सिंचाई योजना की नींव रखी गई और नदी को बांधकर जल संग्रह कर कई निचले इलाके के गांव में सिंचाई की जाने लगी. लेकिन यह योजना भी कलांतर में विभागीय उदासीनता और सरकार की अपरिपक्वता वाली नीति के कारण ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी. इस प्रकार शहर की जीवनदायिनी माने जाने वाली अदरी नदी आज खुद लुप्त के कगार पर है.
नौकायन की थी व्यवस्था
इस संबंध में आरजेडी नेता डॉ. रमेश यादव बताते हैं कि 1990 में डैम की खूबसूरती और नदी के फैलाव को देखकर यहां नौकायन की व्यवस्था की गई थी और प्रतिदिन शाम के समय यहां शहरवासी अपने बच्चों के साथ आकर नाव की सवारी किया करते थे. लेकिन बढ़ते अतिक्रमण और कचरे की डंपिंग से इसकी खूबसूरती पर ग्रहण लग गया. शहर में कभी अपने जल के कलकल की ध्वनि से लोगों को रोमांचित करने वाली यह नदी आज बेमौत मर रही है. इसके दोनों पाट अतिक्रमण का शिकार हो गए हैं.
गाद ने वास्तविक रूप को किया समाप्त
उन्होंने कहा, " एक तरफ महादलित लोगों ने अवैध रूप से इसके किनारों का अतिक्रमण कर अपना आशियाना बना रखा है ,तो दूसरी तरफ शहर के कूड़े-कचरे ने इसकी चौड़ाई कम कर दी है. नदी के बेड में जमे गाद ने इसके वास्तविक स्वरूप को समाप्त कर दिया है. कूड़े-कचरे से निकलने वाली बदबू आने जाने वालों को प्रभावित कर रही है. नदी के किनारे कूड़े-कचरे से निकल रही दुर्गंध को देखते हुए सोन कमांड के अधीक्षण अभियंता अश्विनी सिंह ने नगर परिषद को पत्र लिखकर कचड़े के डंप न करने का निर्देश दिया है."