खरमास खत्म होते-होते बिहार महागठबंधन में खटपट तेज हो गई है. जनता दल यूनाइटेड (JDU) संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने इशारों-इशारों में महागठबंधन के नेता नीतीश-लालू पर निशाना साध रहे हैं. कुशवाहा के अचानक मन परिवर्तन के बाद उनके जेडीयू छोड़ने की अटकलें शुरू हो गई है.


1985 से राजनीतिक करियर की शुरूआत करने वाले उपेंद्र कुशवाहा पिछले 15 सालों में 7 बार पलटी मार चुके हैं. मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे कुशवाहा 2 बार अपनी पार्टी भी बना चुके हैं. कुशवाहा और नीतीश की जोड़ी को बिहार में लव-कुश की जोड़ी कहा जाता है. 


उपेंद्र कुशवाहा ने क्या कहा है?
समाजवादी नेता शरद यादव ने निधन पर पटना में बोलते हुए उपेंद्र कुशवाहा ने कहा, 'जिन लोगों को संघर्ष के दौरान उन्होंने बनाया. देश भर में उनके कारण लोग बड़े-बड़े पदों पर गए. अंत में आकर वैसे लोगों ने उनसे बात तक करना छोड़ दिया. हमेशा शरद यादव परेशान रहते थे. कोई उनका हाल जाने और खबर ले, लेकिन लोग यह भी नहीं करते थे.'


दरअसल, 2018 में जेडीयू से निकाले जाने के बाद शरद यादव सांसदी बचाने के लिए कोर्ट में लंबी लड़ाई लड़े. सांसदी जाने के बाद दिल्ली स्थित उनका बंगला भी छीन गया था, जिस वजह से काफी परेशान थे. 


छोड़ने की अटकलें क्यों लग रही? 


1. महागठबंधन में नेताओं के बयानबाजी पर रोक लगाई गई है. इसके बावजूद उपेंद्र कुशवाहा राजद, जदयू नेताओं पर लगातार हमला कर रहे हैं. 


2. मकर संक्रांति पर उपेंद्र कुशवाहा ने दही-चूड़ा भोज के आयोजन का ऐलान किया था. इसमें सभी पार्टियों के नेताओं को आमंत्रण दिया गया था. हाालंकि, शरद यादव के निधन की वजह से इसे कैंसिल कर दिया गया.


उपेंद्र कुशवाहा ने कब-कब पलटी मारी?


2007- बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे उपेंद्र कुशवाहा ने 2007 में पहली बार जेडीयू से बगावत कर दी. कुशवाहा के बगावती तेवर को देखते हुए जेडीयू ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया. कुशवाहा इसके बाद खुद की राष्ट्रीय समता पार्टी बनाई.


2009- लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद उपेंद्र कुशवाहा ने फिर से पलटी मारी और नीतीश कुमार से जाकर मिल गए. इस बार नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया.


2013- जेडीयू और बीजेपी में तनातनी के बीच उपेंद्र कुशवाहा ने नीतीश को झटका देने के लिए फिर से पार्टी छोड़ दी. इस बार उन्होंने फिर से अपनी खुद की नई पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी बनाई. 


2014- उपेंद्र कुशवाहा ने बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया और लोकसभा में 4 सीटों पर उम्मीदवार उतारे. हालांकि, एक सीट डमी के तौर पर उनको मिला था. कुशवाहा बिहार में 3 सीट जीतने में कामयाब रहे. इसके बाद उन्हें मोदी कैबिनेट में मंत्री बनाया गया.


2018- मोदी सरकार से जातीय जनगणना आदि मुद्दे पर विरोध के बाद उपेंद्र कुशवाहा ने मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया. कुशवाहा एनडीए छोड़ राजद-कांग्रेस के नेतृत्व वाली महागठबंधन में शामिल हो गए. 


2019- लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद उपेंद्र कुशवाहा ने महागठबंधन का साथ छोड़ दिया. उन्होंने बसपा और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के साथ मिलकर तीसरा मोर्चा बनाया.


2020- बिहार चुनाव में तीसरा मोर्चा भी पूरी तरह फेल हो गया. उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली, जिसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी का जेडीयू में विलय कर लिया. 


उपेंद्र कुशवाहा का राजनीतिक करियर
उपेंद्र कुशवाहा लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा और विधानपरिषद् यानी चारों सदन के सदस्य रहे हैं. 2000-2005 तक वे विधानससभा के सदस्य रहे हैं. 2010-2013 तक राज्यसभा, 2014-2019 तक लोकसभा और 2021 से लेकर अब तक विधानपरिषद् के सदस्य हैं. 


कुशवाहा 2004 में बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने. इससे पहले वे उपनेता प्रतिपक्ष के पद पर थे. 2014 में केंद्र में कुशवाहा राज्य मंत्री बनाए गए. 


कुशवाहा ने अपनी राजनीतिक करियर जनता दल से की थी. 1994 में वे समता पार्टी बनने के बाद वे नीतीश-जॉर्ज के साथ हो गए. 1995 में कुशवाहा वैशाली के जंदाहा सीट से चुनावी मैदान में उतरे, लेकिन करारी हार मिली. 


2 बार पॉलिटिकिल हिट विकेट, फिर पाला बदलने में माहिर
उपेंद्र कुशवाहा अपने फैसलों की वजह से 3 बार पॉलिटिकिल हिट विकेट हो चुके हैं, फिर भी पाला बदलते रहे हैं.


नीतीश सत्ता में, साथ छोड़ गए- विपक्ष में नीतीश कुमार के साथ रहने वाले उपेंद्र कुशवाहा सरकार आने के 2 साल बाद ही नीतीश का साथ छोड़ गए. 2007 में उन्होंने नीतीश कुमार से खुद को अलग कर राष्ट्रीय समता पार्टी बना ली. हालांकि, उनकी पार्टी 2009 के चुनाव में परफॉर्मेंस नहीं कर पाई. 


2009 में हारकर कुशवाहा फिर नीतीश से मिल गए और कभी नहीं जाने की बात कही. 


मोदी कैबिनेट से इस्तीफा और महागठबंधन का साथ- 2014 के चुनाव में जब बिहार की राजनीति में बीजेपी के पास कोई भी सहयोगी नहीं था, उस वक्त राम विलास पासवान के साथ उपेंद्र कुशवाहा ने बीजेपी को साथ दिया. बदले में उन्हें मोदी कैबिनेट में मंत्री बनाकर इनाम भी दिया गया. 


मगर, 4 साल में ही उन्होंने सरकार के खिलाफ बिगुल फूंक दिया. 2018 में कुशवाहा मोदी कैबिनेट से इस्तीफा देकर बिखरे महागठबंधन के साथ चले गए. 2019 में उन्होंने 2 सीटों (काराकाट और उजियारपुर) पर चुनावी मैदान में उतरे, लेकिन दोनों जगहों पर करारी हार हुई. 


आखिर उपेंद्र कुशवाहा की चाहत क्या है?
1. कद हिसाब से जिम्मेदारी नहीं मिली- वरिष्ठ पत्रकार ओम प्रकाश अश्क कहते हैं- पार्टी विलय के बाद उपेंद्र कुशवाहा को बड़ी जिम्मेदारी मिलने की उम्मीद थी, लेकिन जेडीयू ने उन्हें संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाकर झुनझुना थमा दिया. 


अश्क आगे कहते हैं कि कुशवाहा मानसिक तौर पर खुद को नीतीश कुमार का उत्तराधिकारी मान बैठे थे, लेकिन नई सियासी समीकरण ने उन्हें असहज कर दिया है. हाल ही में नीतीश कुमार ने कुशवाहा को डिप्टी सीएम बनाने के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया.


2. नेताओं और कार्यकर्ताओं को सेटल नहीं कर पाए- उपेंद्र कुशवाहा ने जब पार्टी का विलय किया था, तो अपने कार्यकर्ताओं को भरोसा दिया था कि उन्हें जेडीयू और सरकार में जगह दिलाई जाएगी. विलय के डेढ़ साल से ज्यादा वक्त बीत चुका है. कार्यकर्ता और नेता तो बाद में कुशवाहा खुद सेटल नहीं हो पाए हैं. 


रालोसपा से आए नेताओं को संगठन में भी अभी तक कोई जिम्मेदारी नहीं मिली है. बोर्ड-मंडल में भी उपेंद्र कुशवाहा के करीबियों को शामिल नहीं किया गया है. ऐसे में साथियों का दबाव भी उन पर लगातार बढ़ रहा है. 


3. लोकसभा चुनाव लड़ने को लेकर हरी झंडी नहीं- उपेंद्र कुशवाहा काराकाट से सांसद रह चुके हैं. पिछले चुनाव में काराकाट और उजियारपुर से चुनाव लड़े थे, लेकिन हार हुई थी. कुशवाहा को अभी तक जेडीयू हाईकमान ने लोकसभा चुनाव और सीट को लेकर हरी झंडी नहीं दी है. 


काराकाट सीट से जदयू के महाबली सिंह सांसद हैं और पार्टी के कद्दावर नेता माने जाते हैं. उजियारपुर सीट पर राजद का दावा रहा है और पिछले चुनाव में तेजस्वी के साथ होने के बावजूद यादव वोट शिफ्ट नहीं हो पाया था. ऐसे में कुशवाहा किसी सेफ सीट की तलाश में हैं, जो अब तक नहीं मिला है. 


ऑप्शन दो, लेकिन राह आसान नहीं...


1. जेडीयू छोड़ बीजेपी गठबंधन में जाने की- बिहार के सियासी गलियारों में इस बात की चर्चा अभी सबसे तेज चल रही है. वरिष्ठ पत्रकार ओम प्रकाश अश्क कहते हैं कि कुशवाहा 2013 में भी पार्टी बनाकर बीजेपी के साथ गठबंधन कर चुके हैं. अभी भी उनके बीजेपी हाईकमान से टच में होने की बात कही जा रही है. 


मगर, इस बार कुशवाहा के लिए यह फैसला लेना आसान नहीं है. 2013 में जब उन्होंने पार्टी बनाई तो कई नेता साथ थे, लेकिन अब सब अलग-अलग हैं. कुशवाहा के लगातार पार्टी बदलने से उनकी क्रेडिबलिटी को भी धक्का लगा है. ऐसे में इस बार पार्टी बनाकर बीजेपी के साथ जाना आसान नहीं है. 


2. जेडीयू में जगह की तलाश- पॉलिटिकिल प्रेशर के जरिेए नीतीश कुमार पर दबाव बनाकर जेडीयू में जगह तलाश करने का ऑप्शन भी कुशवाहा के पास है. बिहार में कुशवाहा बिरादरी के करीब 3 फीसदी वोट है. ऐसे में जेडीयू मजबूत करने में जुटे नीतीश कुशवाहा को साथ रखने की कोशिश करेंगे. 


हालांकि, इसमें भी राह आसान नहीं है. नीतीश के इर्द-गिर्द जितने भी नेता हैं, उनका पॉलिटिकिल जनाधार नहीं है. यानी इसे इस तरह कहा जा सकता है कि नीतीश अपने आस-पास बड़े जनाधार वाले नेताओं को नहीं रखते हैं. इसका उदाहरण प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा, अशोक चौधरी और संजय झा है.