मोह या मजबूरी..., राजनीति में लाने वाले नीतीश कुमार से बगावत पर क्यों तुले हरिवंश?
नई संसद उद्घाटन में हरिवंश की मौजूदगी के बाद सियासी गलियारों में अब इस बात की चर्चा है कि नीतीश कुमार के करीबी रहे हरिवंश ने क्या अब पाला बदल लिया है? इधर, नीतीश की पार्टी उनसे सफाई मांग रही है.
राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह पर उनकी अपनी ही पार्टी जेडीयू हमलावर है. प्रोफेशनल करियर में नैतिकता को लेकर आचार संहिता बनाने वाले हरिवंश की नैतिकता पर ही सवाल उठ रहे हैं. वजह है- पार्टी स्टैंड से हटकर संसद के उद्घाटन में शामिल होना.
नई संसद के उद्घाटन में हरिवंश के शामिल होने पर जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने कहा है कि उन्हें सफाई देनी चाहिए. सिंह ने कहा कि लगता है हरिवंश ने अपनी नैतिकता को कूड़ेदान में फेंक दिया है. विवाद के बीच हरिवंश की जेडीयू की सदस्यता भी खतरे में आ गई है.
पत्रकारिता से करियर की शुरुआत करने वाले हरिवंश 2014 में नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू में शामिल हो गए थे. हरिवंश उस वक्त स्थानीय अखबार प्रभात खबर के समूह संपादक भी थे. नीतीश कुमार के करीबी होने की वजह से ही जेडीयू ने हरिवंश को राज्यसभा भेजा.
नई संसद उद्घाटन में हरिवंश की मौजूदगी के बाद सियासी गलियारों में अब इस बात की चर्चा है कि नीतीश कुमार के करीबी रहे हरिवंश ने क्या अब पाला बदल लिया है? अगर हां तो इसकी वजह क्या है?
नीतीश से बगावत की राह पर है हरिवंश, 3 प्वॉइंट्स...
- जेडीयू के प्रवक्ता नीरज कुमार के मुताबिक हरिवंश ने कुर्सी के लिए जमीर से समझौता कर लिया है. नई संसद के औचित्य पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सवाल उठाया, लेकिन हरिवंश उस उद्घाटन में शामिल हुए.
- बिहार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अजित शर्मा ने कहा कि हरिवंश सिंह जेडीयू में रहने का दिखावा कर रहे हैं. उनका मन बीजेपी में है और वे बीजेपी में शामिल होना भी चाहते हैं. हरिवंश ने पार्टी के साथ गद्दारी की है.
- हरिवंश पर उनकी पार्टी हमलावर है, तो दूसरी ओर बीजेपी उनका बचाव कर रही है. इस पूरे मसले पर हरिवंश ने चुप्पी साध ली है. उद्घाटन के बाद उन्होंने एक ट्वीट भी किया, लेकिन इस विवाद का कोई जिक्र नहीं किया.
नीतीश-हरिवंश कितने दूर, कितने पास?
पुस्तक विमोचन में नीतीश मौजूद नहीं थे- 2019 में हरिवंश ने चंद्रशेखर को लेकर एक किताब लिखी. जुलाई 2019 में इसका विमोचन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों करवाया. किताब में चंद्रशेखर को आखिरी सिद्धांतवादी व्यक्ति बताया गया था.
इस कार्यक्रम में पीएम मोदी के अलावा तत्कालीन उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू, लोकसभा स्पीकर ओम बिरला और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद मंच पर मौजूद रहे. दिलचस्प बात है कि कार्यक्रम में नीतीश कुमार की गैरहाजिरी चर्चा का विषय बना रहा. उस वक्त तक नीतीश कुमार बीजेपी के साथ ही थे.
(Photo- PMO)
गठबंधन टूटने के बाद सार्वजनिक बयान नहीं दिया- 2022 में नीतीश कुमार बीजेपी से गठबंधन तोड़कर आरजेडी के साथ चले गए. इसके बाद हरिवंश की भूमिका को लेकर सवाल उठा. प्रशांत किशोर कई मौकों पर हरिवंश के बहाने नीतीश पर निशाना साधा.
हरिवंश के समर्थन को लेकर ललन सिंह ने बयान भी दिया, लेकिन हरिवंश खुद गठबंधन टूटने या नीतीश के समर्थन को लेकर कोई बयान नहीं दिया. गठबंधन टूटने के बाद नीतीश के साथ मुलाकात की उनकी कोई तस्वीर भी सार्वजनिक तौर पर सामने नहीं आई.
मोह या मजबूर... नीतीश से बगावत क्यों?
उप-सभापति का दायित्व- संसद में दो सदन राज्यसभा और लोकसभा है. लोकसभा के प्रमुख स्पीकर होते हैं, जबकि राज्यसभा में सर्वेसर्वा उपराष्ट्रपति होते हैं, जो पदानुक्रम में प्रधानमंत्री से बड़े होते हैं. ऐसे में उपराष्ट्रपति को बुलाने का दूसरा ही अर्थ निकलता.
लोकसभा से स्पीकर ओम बिरला को उद्घाटन में आमंत्रित किया गया था.
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि उपराष्ट्रपति को न बुलाकर राज्यसभा से उपसभापति को सरकार ने बुला लिया, जिससे दोनों सदन का चेहरा दिखे. उपसभापति का पद भी संवैधानिक होता है, इसलिए उद्घाटन में शामिल होना उनका दायित्व भी है.
बीजेपी इसे सोमनाथ चटर्जी केस से भी जोड़ रही है. 2008 में सीपीएम ने मनमोहन सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया था. सीपीएम ने उस वक्त स्पीकर चटर्जी को इस्तीफा देने के लिए कहा था, जिससे उन्होंने इनकार कर दिया था.
लालू यादव और उनकी पार्टी से असहजता- प्रभात खबर के पूर्व संपादक ओम प्रकाश अश्क नीतीश से दूरी के पीछे लालू यादव और उनकी पार्टी को मानते हैं. अश्क के मुताबिक हरिवंश ने अपने पत्रकारिता करियर में लालू सरकार के खिलाफ जमकर अभियान चलाया और चारा घोटाला जैसे बड़ा खुलासा किया.
चारा घोटाला की वजह से ही लालू यादव को जेल जाना पड़ा और राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनी. अश्क कहते हैं- लालू को लेकर हरिवंश 2015 में भी असहज नहीं थे, लेकिन उस वक्त वे ज्यादा कुछ कर नहीं पाए थे.
हाल ही में जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह ने भी एक खुलासा किया था. ललन सिंह के मुताबिक 2017 में नीतीश कुमार और बीजेपी को साथ लाने में हरिवंश ने बड़ी भूमिका निभाई थी. हालांकि, हरिवंश ने इस मसले पर कोई टिप्पणी नहीं की.
नीतीश के पास देने के लिए कुछ नहीं- सियासी गलियारों में हरिवंश की महत्वाकांक्षा भी सवालों के घेरे में रहा है. उनके कई सहयोगी भी तमाम लेखों और सोशल मीडिया पर इसको लेकर सवाल उठा चुके हैं.
ओम प्रकाश अश्क भी नीतीश से हरिवंश की दूरी के पीछे महत्वाकांक्षा को वजह मानते हैं. अश्क के मुताबिक नीतीश कुमार के पास हरिवंश को देने के लिए कुछ नहीं है. जेडीयू की परंपरा रही है कि एक व्यक्ति को सिर्फ 2 बार राज्यसभा भेजती है, इसका उदाहरण अली अनवर और आरसीपी सिंह है.
अश्क आगे कहते हैं- हरिवंश भी यह बात बखूबी जानते होंगे, इसलिए नीतीश के बजाय नरेंद्र मोदी के पाले में जाने की कोशिश कर रहे होंगे. बीजेपी के पास अभी देने के लिए राज्यपाल समेत कई पद हैं.
अब हरिवंश से जुड़े 2 किस्से...
पत्रकार हरिवंश और नैतिकता का कोड ऑफ कंडक्ट
बीएचयू के छात्रनेता रहे हरिवंश ने 1977 में बैंक की नौकरी छोड़ मशहूर पत्रिका धर्मयुग में बतौरी ट्रेनी जर्नलिस्ट करियर की शुरुआत की. यहां वे 4 साल यानी 1981 तक रहे. इसके बाद हरिवंश कोलकाता से निकलने वाले रविवार पत्रिका में चले गए.
1989 में हरिवंश रांची (अब झारखंड की राजधानी) से निकलने वाले स्थानीय अखबार प्रभात खबर के संपादक बनाए गए. हरिवंश के नेतृत्व में यह अखबार झारखंड आंदोलन का चेहरा बन गया. बाद में अखबार का विस्तार बिहार और पश्चिम बंगाल में भी हुआ.
हरिवंश ने अपने अधीन काम करने वाले लोगों के लिए उस वक्त नैतिकता का कोड ऑफ कंडक्ट भी बनाया था. इसके उल्लंघन करने वालों के लिए सख्त सजा का प्रावधान भी था. हरिवंश 2014 तक अखबार के समूह संपादक पद पर रहे.
नीतीश से करीबी और पटना वाया दिल्ली पहुंच गए
अखबार में संपादक रहने के दौरान ही हरिवंश और नीतीश कुमार का रिश्ता काफी गहरा होता गया. हरिवंश पर आरोप लगा कि उनके नेतृत्व में नीतीश कुमार के राजनीतिक अभियान को अखबार ने खूब प्रमोट किया.
अखबार पर विपक्षी नेताओं के विरोधी बयान को जगह नहीं देने का आरोप भी लगा. अंत में सभी आरोप को खारिज करते हुए हरिवंश जेडीयू में शामिल हो गए. जेडीयू ने उन्हें तुरंत 6 साल के लिए राज्यसभा भेज दिया.
जेडीयू में शामिल होने के बाद न तो कभी हरिवंश ने अपने ऊपर लगे आरोपों का खंडन किया और न ही जेडीयू ने. राज्यसभा में जाने के बावजूद हरिवंश के लिए 2014 से 2017 तक का समय राजनीतिक रूप से काफी मुश्किलों भरा रहा.
दरअसल, केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद जेडीयू ने आरजेडी से गठबंधन कर लिया. 2015 में दोनों दलों की सरकार भी बन गई. हालांकि, सरकार में हरिवंश की कोई पूछ-परख काफी कम हो गई थी.
2017 में एक घटना हरिवंश के राजनीतिक करियर के लिए काफी फायदेमंद साबित हुआ. एक घोटाले में तेजस्वी यादव का नाम आने के बाद नीतीश कुमार ने आरजेडी से गठबंधन तोड़ लिया. ललन सिंह के मुताबिक नीतीश को आरजेडी से गठबंधन तोड़ने की सलाह हरिवंश, संजय झा और आरसीपी सिंह ने दी थी.
2018 में सिंह राज्यसभा में एनडीए के साझा उम्मीदवार बनाए गए. नीतीश ने हरिवंश को जिताने के लिए नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी से समर्थन मांगा था. बहुमत होने की वजह से हरिवंश जीत भी गए. हरिवंश तब से राज्यसभा के उपसभापति हैं.