पटना: नीतीश कुमार के फैसले पार्टी को उबारने वाले कम डुबाने वाले ज्यादा दिख रहे हैं. ये सवाल पिछले कई दिनों से बिहार की राजनीति में चर्चा का केंद्र है. राष्ट्रीय अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद नीतीश कुमार ने आरसीपी को जिम्मेदारी सौंपी. विरोधियों ने उनके फैसले पर परिवारवाद की जगह जातिवाद का पोषक होने का आरोप मढ़ा.


नीतीश कुमार पर जातिवाद का पोषक होने का लगा आरोप


विरोधियों की बात बहुत हद तक सही लगने की वजह है. नीतीश कुमार कुर्मी जाति से आते हैं. उस जाति की उनके नेता बनने और पार्टी खड़ा करने में खास भूमिका रही है. नीतीश के बाद पार्टी चलाने वाला परिवार में कोई नहीं है. लिहाजा उन्होंने अपना उत्तराधिकारी अपनी जाति के नेता को बनाया. आरसीपी सिंह दस साल पहले ही नेता बने हैं. माना जाता है कि आरसीपी बीजेपी के भी उतने ही करीब हैं जितने नीतीश कुमार के. यहां तक का फैसला तो समझ में आता है. लेकिन उनका अगला फैसला चौंकानेवाला है.


पिछले दिनों पार्टी के एक नेता ने बताया कि जातीय समीकरण के हिसाब से किसी कोइरी नेता को प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाया जाएगा. मतलब पार्टी में इस बात को लेकर चर्चा चल रही थी कि कोइरी नेता अध्यक्ष तक नहीं पहुंचेगा. लेकिन उनका ये अनुमान गलत साबित हुआ. अब सवाल ये कि नीतीश ने कुशवाहा जाति के नेता को प्रदेश अध्यक्ष क्यों बनाया. पार्टी की स्थापना के बाद से अभी किसी भी कोइरी जाति के नेता को प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाया गया था.


नीतीश के फैसले पार्टी को उबारने वाले कम डुबाने वाले ज्यादा


2004-2005 में उपेन्द्र कुशवाहा संगठन में प्रदेश के प्रधान महासचिव की कुर्सी तक पहुंचे थे. उस वक्त विजेंद्र यादव प्रदेश अध्यक्ष थे. बाद में विजेंद्र यादव को को हटाकर ललन सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. नीतीश कुमार, रघुनाथ झा, विजेंद्र यादव, ललन सिंह, विजय चौधरी, वशिष्ठ नारायण सिंह समता पार्टी (पहले जदयू का नाम था) और जदयू के बिहार प्रमुख रह चुके हैं. नीतीश को अलग रखें तो विजेंद्र यादव के अल्प कार्यकाल को छोड़कर ज्यादातर समय सवर्ण जाति के नेता अध्यक्ष रहे.


अब नीतीश कुमार को कुर्मी कोइरी पर फोकस इसलिए करना पड़ रहा है क्योंकि उनकी स्वीकार्यता समुदाय में कम हुई है. उपेन्द्र कुशवाहा, शकुनि चौधरी, मंजय लाल, भगवान सिंह कुशवाहा, दिनेश कुशवाहा, रेणु कुमारी एक वक्त में जदयू के बड़े कोइरी नेता थे. शकुनि चौधरी की विरासत बेटे सम्राट चौधरी के हाथ है जो अब बीजेपी में हैं. उपेन्द्र कुशवाहा की अपनी अलग पार्टी है. भगवान सिंह कुशवाहा अभी लोजपा में हैं. दिनेश कुशवाहा की विरासत बेटे अजय के पास है जो बीजेपी से होते हुए अभी लोजपा में हैं. इसके अलावा रेणु कुमारी भी लोजपा में हैं.


कुल मिलाकर नीतीश कुमार ने जिस नेता को मजबूत किया, उनमें से ज्यादातर कोइरी नेता उनसे दूर छिटक गए. फिलहाल साथ रहनेवाले लोग नेता बनने की लाइन में हैं. उसी लाइन में रहने वाले नेताओं ने नीतीश की छवि को बर्बाद करने में अहम रोल निभाया. नीतीश कार्यकाल में घूस लेते कैमरे पर कैद होकर बर्खास्त होने वाले अवधेश कुशवाहा, बालिका गृह कांड के दौरान कुर्सी गंवाने वाली मंजू कुशवाहा, भर्ती घोटाले में अभी हाल में कुर्सी गंवाने वाले मेवालाल चौधरी कोइरी जाति के ही नेता हैं. कोइरी नेताओं की छवि का मामला ये है कि पिछली बार शिक्षा मंत्री रहे कृष्णनंदन वर्मा विधान सभा चुनाव में जनता के डर से वोट तक नहीं मांग पाए.


जिस उमेश कुशवाहा को अध्यक्ष बनाया गया है उनको चुनाव से पहले क्षेत्र की जनता ने खदेड़ दिया था. उमेश कुशवाहा पर क्षेत्र में नहीं जाने के आरोप लगे थे. लोगों का कहना था कि पांच साल में पहली बार दिखे. बाद में एक बार और लोगों ने गांव से उन्हें भगा दिया. ऐसे नेता को नीतीश कुमार ने संगठन की जिम्मेदारी दी है. असल में नीतीश कुमार को आभास हो गया है कि उनका आधार वोट उनके साथ नहीं है. पहले नीतीश कुर्मी और कोइरी दोनों के नेता हुआ करते थे.


दलित, कोइरी समुदाय पर नीतीश के मन में संशय 


कथित तौर पर दोनों की जोड़ी को लव और कुश कहा जाता था. लव मतलब कुर्मी और कुश मतलब कोइरी. अब नीतीश को लगता है कि सवर्ण उनके साथ तभी आयेगा जब कोइरी साथ रहेगा. भूमिहार और ब्राह्मण को नीतीश बीजेपी का मान कर चल रहे हैं. दलितों को लेकर शायद शंका है, इसलिए अशोक चौधरी को कार्यकारी अध्यक्ष तक ही सीमित रखा. उमेश कुशवाहा के ज्यादा दिनों तक अध्यक्ष रहने पर संदेह है. 6 फीसदी कोइरी वोटरों को लेकर नीतीश के मन में संशय की स्थिति का पता नियुक्ति से जाहिर होता है. पार्टी के पास कोइरी नेता की कमी की भरपाई उपेन्द्र कुशवाहा की वापसी से पूरी हो सकती है.


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